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पञ्चमः परिच्छेदः
अष्टावासामवस्थाः स्युः स्वाधीनपतिकादयः । स्वाधीनपतिका वाससज्जिका कलहान्तरा ॥ ३६१ ॥ खण्डिता विप्रलब्धा तु तथा प्रोषितभर्तृका । विरहोत्कण्ठिता चान्या तथान्या चाभिसारिका ।। ३६२ || स्वाधीनपतिका सन्नायत्तनाथा मता यथा ।
यालंकृता प्रियागत्या यथा वासकसज्जिका || ३६३ ||
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उरोजयोरेणमदेन तस्याः कुतूहली यं मकरं लिलेख । विभावयामास स भावयोनेः स्थूलाग्रजाग्रन्मकरध्वजस्य ॥३६४॥
काञ्चीसु नूपविर्सिञ्जितचित्तरम्या गुञ्जद्द्द्विरेफमुख नीरज शोभमाना । भास्वत्युदेष्यति मृणालनिभोरुहारा कान्ते समेष्यति बभौ नलिनीव तन्वी ॥ ३६५॥
३२१
उपर्युक्त नायिकाओं के स्वाधीनपतिका आदि आठ भेद होते हैं । (१) स्वाधीन - पतिका ( २ ) वासकसज्जिका ( ३ ) कलहान्तरा ( ४ ) खण्डिता ( ५ ) विप्रलब्धा ( ६ ) प्रोषितभर्तृका (७) विरहोत्कण्ठिता (८) अभिसारिका ।। ३६१-३६२।
स्वाधीनपतिका और वासकसज्जिका —
सदा पति के समीप और अधीन रहनेवाली नायिकाको स्वाधीनपतिका और जो प्रियतमके आगमनको सुनकर अपनेको सजाती है, उसे वासकसज्जिका कहते हैं ॥ ३६३ ॥
उदाहरण
नायिका के अधीन रहनेवाले किसी कौतुकी नायकने उस प्रियतमाके वक्षःस्थलपर कस्तूरीसे मकराकृति बनायी । वह आकृति भावसे उत्पन्न कामदेव के विशाल दाँतके समान शोभित होने लगी ।। ३६४ ॥
रशना और नूपुर के शब्द से प्रसन्न चित्तवाली तथा गूँजते हुए भ्रमरसे युक्त, कमलके समान मुखसे सुशोभित, कमलनालके समान श्वेत और शीतल हारसे युक्त वक्ष:स्थलवाली, विरहसे कृशांगी नायिका प्रियतमके आनेपर कमलिनी के समान शोभित हुई ॥ ३६५॥
१. इन्या तथा चान्याभिसारिका - ख । २. सन्ना इति पदं - खप्रती नास्ति । ३. उरोजरेण - ख । ४. संजित - ख ।
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