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अलंकारचिन्तामणिः
[५।३६६पश्चादार्ता निरस्येशं कलहान्तरिता यथा । विबुद्धाङ्गजचिह्नशे खण्डितेयावती यथा ॥३६६।। अनुनेतुमनाः कान्तः परुषोक्त्या हतो गतः । किमिन्दुरभ्रसंच्छन्नो न संहरति कौमुदीम् ॥३६७॥
ओष्ठं तद्दन्तदष्टं स्थगयसि करतः कीर्णकेशान्सुमौल्या तत्पीनोत्तुङ्गचञ्चत्कुचरचितमहाकुङ्कमाद्रं च वक्षः । वस्त्रेणास्या नखागैलिखितगलतटं गोपयस्यच्छहारैदिग्व्यापी स्त्रीसुभोगव्यतिकरजनितः केन गोप्योऽङ्गगन्धः ॥३६८।। वञ्चिता समयायानाद्विप्रलब्धेशिना यथा। देशान्तरस्थिते नाथे यथा प्रोषितभर्तृका ॥३६९।।
कलहान्तरिता और खण्डिता नायिका
अपने प्रियतमको पाससे हटाकर पश्चात् जो अफसोस करती है, उसे कलहान्तरिता तथा प्रियतमको परनायिकाके साथ उपभोग करनेसे लगे हुए चिह्नको देखकर नायकसे ईर्ष्या करनेवाली नायिकाको खण्डिता कहते हैं ॥३६६॥
कल हान्तरिताका उदाहरण
नायिकाको मनानेकी इच्छावाला कोई नायक, उस नायिकाके कर्कश वचनोंसे व्यथित होकर चला गया; इसपर वह नायिका उसी प्रकार दुःखी हुई, जिस प्रकार मेघाच्छादित चन्द्रमा कौमुदीको नष्ट कर देता है। आशय यह है कि जिस प्रकार मेघाच्छादित चन्द्रमा कौमुदीको नष्ट कर देता है, उसी प्रकार नायिका द्वारा कलह किये जानेपर नायकके वियोगसे नायिका दुःखी होती है ॥३६७।।
खण्डिताका उदाहरण
कोई खण्डिता अपने प्रियसे कहती है कि आप उस परनायिकाके दांतसे काटे ओष्ठको हाथसे ढंकते हो, अस्त-व्यस्त केशोंको सुन्दर मुकुटसे, उसके पोन और उन्नत स्तनोंसे संलग्न अधिक कुंकुमसे आई छातीको वस्त्रसे, उसके नखके अग्रभागसे चिह्नित कण्ठको स्वच्छहारसे छिपाते हो तो सर्वत्र फैलनेवाले, स्त्रीसुरतसे उत्पन्न शरीरकी गन्धको कैसे छिपाओगे ? ॥३६८।। विप्रलब्धा और प्रोषितभर्तृका
प्रियके द्वारा किये गये संकेत या आगमनसे ठगी हुईको विप्रलब्धा तथा जिसका प्रिय परदेश गया हो, उसे प्रोषितभर्तृका कहते हैं ॥३६९॥
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