________________
३२६
[ ५।३८३
.
अलंकारचिन्तामणिः लसत्पञ्चबाणस्य बाणैरशेषैः
स्फुरद्भूधनुर्मुच्यमानैनिशातैः। कटाक्षैर्हृदुभेदशक्तैः शरव्यं
'सुभद्राङ्गना विध्यति त्वां लेताङ्गी ॥३८॥ शृङ्गारद्योतको व्यक्तो यथा हेला स एव च । वरतरमकरन्दास्वादमत्तां स्वदष्टिं मधुकरवरमालां चारुनिष्पन्दवृत्तिम् । अलसलसदपाङ्गां कामचञ्चत्पताकां' भवदनुनयदूतीं 'प्रेषयन्ती न ते स्यात् ॥३८४॥ अङ्गालंकरणं शोभा रूपतारुण्यतो यथा । तामीषदुद्भिन्नकुचां मृगाक्षी स्वागोरुशोभाजितसर्वभूषाम् । नेपथ्यगेहे पुरतो निषण्णाः क्षणं व्यलम्बन्त सुभूषयन्त्यः ॥३८५॥
चमकते हुए भौंहरूपी धनुषसे छूटे, हृदयको वेधनेमें समर्थ कटाक्षोंसे शोभित लताके समान कृशांगी सुभद्रा इत्यादि नारियाँ लक्ष्यस्वरूप तुझे कामके सम्पूर्ण बाणोंसे छेद रही हैं ।।३८३॥ हेला
शृगारके प्रकाशक व्यक्त हाव ही हेला हैं। उदाहरण
सुन्दर मकरन्दके पीनेसे मतवाली, सुन्दर निश्चेष्ट, मतवाली आंखोंवाली भ्रमरकी सुन्दर श्रेणोतुल्य अलसानेसे सुशोभित नेत्रकोणवाली, कामदेव को फहराती हुई लताके समान आपको मनानेके लिए दूतीको भेजती हुई वह नायिका आपको नहीं हो सकती ? ॥३८४॥ शोभा
रूप और तरुणाईसे अंगोंके अलंकरणको शोभा कहते हैं ।
उदाहरण
अपने अंगोंकी अधिक सुन्दरतासे सभी आभूषणोंको जीत लेनेवाली, किंचित् विकसित पयोधरवाली उस सुन्दरीको, सामने बैठी हुई तथा अलंकृत करती हुई सुन्दरियोंने नेपथ्यगृहमें क्षणमात्रका विलम्ब कर दिया ॥३८५।।
१. शुभाङ्गना-क । २. लताङ्गि-ख । ३. -दपाङ्गा-ख । ४. पताका-ख । ५. प्रेषयन्तीव तेऽस्थात्-क तथा ख । ६. तारुण्यता-ख ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org