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अलंकारचिन्तामणिः
[५।३५७स्नेहोद्रेकोऽपि कोपो भवति ननु सदा तस्य वैरस्यमासीप्रेम्णः पश्याद्य पादान्तग लुठसि तथाप्यस्ति मन्युः खलायाः ॥३५७।। अधीरा तु प्रगल्भादिस्तर्जयेत्ताडयेद्यथाकोपादायान्तमुष्णश्वसितदयितया बाहुपाशेन बध्वा वासागारं च नीत्वा परिजनपुरतः सूचयन्त्यापराधम् । नातो भूयो दुरात्मन्निति मधुरगिरा संरुदत्या पदाभ्यां मञ्जीरासिञ्जिताभ्यां हसति मुदमितस्ताडितो निह्नतोद्धः ॥३५८॥ मध्या तथा प्रगल्भा च भिदा ज्येष्ठाकनिष्ठयोः । प्रत्येकं षड्विधा प्रोक्ता कामितोषकरो यथा ॥३५९॥ कान्ते एकत्रसुस्थे त्वविदितचरमात्प्रेमतोऽभ्यपेत्य दृष्ट्वैकस्या नेत्रे पिधायापिहितवरमहाकेलिदम्भेन चान्याम् । ईषद्ग्रीवाप्रभङ्गः पुलकितसुतनू रोमहृष्टिं दधाना मन्तहस्सोरुगण्डां तरलतरदृशं चुम्बति द्राक् च धूर्तः ॥३६०।।
आज उसके पैरोंके पास में लोटता हूँ, तो भी उस दुष्टाका क्रोध शान्त नहीं होता ॥३५७।। प्रगल्भा अधीरा
प्रगल्भा अधीरा नायिका अपराधी प्रियतमको डराती और मारती है।
क्रोधसे गर्म सांस लेती हुई नायिकाने अपराधी प्रियतमको बाहुबन्धनसे बांधकर तथा विलासभवनमें ले जाकर नौकरोंके समक्ष अपराधको घोषणा करती हुई बोलो-हे दुष्ट, ऐसा काम फिर कभी नहीं करना, ऐसा कहकर रोती हुई मधुर ध्वनि करते हुए नपुर युक्त चरणोंसे हंसते नायक को उसने चरण प्रहार द्वारा ताडित किया तथा आनन्दित और प्रदीप्त नायकने उसे छिपाया, चोटका खयाल न किया ॥३५८।। मध्या और प्रगल्भा नायिकाके भेद
___ मध्या और प्रगल्भा नायिकाके दो-दो भेद होते हैं। मध्या ज्येष्ठा, मध्या कनिष्ठा, प्रगल्भा ज्येष्ठा, प्रगल्भा कनिष्ठा-इस प्रकार उपर्युक्त धीरा अधीरा इत्यादिके भेदोंको मिलाकर कामियोंको सन्तुष्ट करनेवाली मध्या और प्रगल्भा नायिका छह-छह प्रकारकी होती हैं ॥३५९।।
कोई धूर्त नायक एक जगह बैठी हुई अपनी दो प्रियतमाओंको देखकर आवाजके बिना पैरोंके द्वारा प्रेमसे उनके पास गया और अत्यन्त आदरसे एकके नेत्रोंको हथेलीसे बन्द कर उत्तम खेलके बहाने गर्दनको थोड़ासा टेढ़ा किया तथा रोमांचित होकर रोमांचको धारण करनेवाली भीतरी हंसीसे पुलकित कपोलवाली और चंचल नयनोंवाली दूसरी नायिकाका शीघ्रतासे चुम्बन कर लिया ।।३६०॥
१. वैराग्यमासीद्-ख । २. खप्रती 'मुष्ण' इति नास्ति । ३. संरुदन्त्या-ख ।
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