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-३५७ ] पञ्चमः परिच्छेदः
३१९ प्रगल्भाऽपि त्रिधा मध्यावदेव परिभाषिता। व्याजेनाद्या रतं त्यक्त्वा सागसं खेदयेद्यथा ॥३५४॥ कान्ताभ्यर्णस्थिता सा करधृतसुमनः कन्दुकानीतिदम्भादाश्लेषं विघ्नयन्ती गलखलपितादीनि चालीजनेभ्यः । ताम्बूलं तालवृन्तं मुकुरमपि ममाशानयन्त्वित्युपात्तं नीतेभ्यः कोपजालं सफलमकृत तं चातुरी खेदयन्ती ॥३५५॥ दष्ट्वा तं खण्डितोष्ठं कलहयति पुरैवाशु केशग्रहं नो दत्ते गण्डं सदोष्ठं वितरति न च संचुम्बितुं भुग्नसुभ्रूः । नीवीविस्रसने वा वितरति न तनुं श्लिष्यतोऽप्यप्रहृष्टा शिक्षां तन्वी स्वनेतुः कुरुत इति महाकोप एषोऽत्र नान्यः ॥३५६॥ धीराधीराप्रगल्भादिः सोत्प्रासानजवाग्यथाअन्योन्यस्मेरता च भ्रुकुटिविरचना दृष्टिपातः प्रसादो
गाढाश्लेषोऽपि मौनं भणितमनुनयो यत्र रोमाञ्चवृद्धिः । प्रगत्मा नायिकाके भेद -
प्रगल्भा नायिकाके भी मध्यमा नायिकाके समान ही तीन भेद होते हैं। इनमें धोराप्रगल्भा अपराधी प्रियतमको किसी बहानेसे सुरत सुखसे वंचित करके दुःख देती है ॥३५४॥ प्रौढा अधीराका उदाहरण
प्रियतमके पास में खड़ी, वह हाथमें पकड़े हुए पुष्पके कन्दुकको लानेका बहाना करनेवाली आलिंगन और गलेसे सटकर वार्तालापमें विघ्न पहुँचाती हुई, पान, पंखा, दर्पणको मेरे पास में लाओ और सखियोंके लानेपर सखियोंके द्वारा ही प्रियतमको कष्ट पहुँचाती हुई उस चतुर नायिकाने अपने क्रोधको सफल किया ॥३५५॥ प्रगल्भा धोराधीराका उदाहरण
सुन्दर और टेढ़ी भौंहवाली कोई नायिका कटे हुए ओष्ठवाले अपने प्रियतमको देखकर कलह करती है। प्रथम केशग्रह नहीं होने देती, चुम्बन करनेके लिए सुन्दर अधरसे युक्त कपोलको नहीं देती, नोवीके स्खलित हो जानेपर भो शरीरको प्रदान नहीं करती, आलिंगन करनेपर भी प्रसन्न नहीं होती; इस प्रकार कृशांगी वह अपने नायकको दण्ड देती है। इसमें कारण महान् क्रोध ही है, दूसरा कुछ भी कारण नहीं है ॥३५६।।
प्रगल्भा धीराधीरा रहस्यपूर्ण कुटिल शब्दका प्रयोग करती है ।
परस्पर दर्शन होनेपर मुंहका विकसित होना, भौंहोंका टेढ़ा करना, दृष्टिका पड़ना, प्रसन्नता, गाढ़ आलिंगन करनेपर भी मौन, अनुनय करनेपर भी अलंकारको ध्वनि, रोमांचकी वृद्धि; स्नेहका आधिक्य भी कोपाधिक्यका कारण प्रेमकी विरसता होती है । देखो,
१. ममाश्वानयन्त्वि-क ।
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