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पञ्चमः परिच्छेदः प्रारब्धनियमत्यागि भिन्नप्रक्रमकं यथा। गुजा मुक्ता लताः कान्ता विन्ध्यारण्यं पुरं द्विषाम् ।।२२८।। बहुवचनत्वेन प्रारम्भे विन्ध्यारण्यं पुरमित्येकवचने प्रक्रमभङ्गः । न्यूनं यत्रोपमानं तन्न्यूनोपममिदं यथा । स्त्रीबाहनखपीडोऽरिवंने कण्टकभेदवान् ॥२२९॥
स्ववध्वा बाहुभ्यां नखैः संपीडितश्चक्रिणोऽरिः तद्भयादरण्ये कण्टकैः पीडयत इत्यत्र नखस्थाने कण्टकवचनं बाहुस्थाने किमपि नोक्तमिति न्यूनोपमात्वम् ।
उपमानाधिक्यं तदधिकोपमकं यथा। 'ग्लानास्याऽरिवधूर्णीष्मे म्लानाऽब्जोत्पलसिन्धुवत् ॥२३०॥
ग्लानवक्त्रायाश्चक्रिरिपुयोषितः उपमाभूतायां नद्यां म्लानाब्जमात्रं वक्तव्यं म्लानोत्पलमित्यधिकम् ।
(१७) प्रक्रमभंग-जिस पद्यमें प्रारम्भ किये हुए किसी नियमका त्याग होता है वहाँ भग्नप्रक्रम नामका दोष आता है। जैसे-चक्रवर्ती भरतके शत्रुओंके लिए गुंजाफल-मोती; लताएँ-स्त्रियाँ एवं विन्ध्याचलका अरण्य नगर हो गया। यहां 'गुंजाफल मुक्ता बन गये हैं', में गुंजाः मुक्ताः को बहुवचनसे प्रारम्भ किया गया है, किन्तु अन्तमें इसका त्यागकर 'पुरं' में एकवचनका प्रयोग किया है, इसलिए यहां प्रक्रमभंग नामका दोष है ॥२२८॥
बहुवचनसे प्रारम्भकर एकवचनमें अन्त कर देनेसे क्रमका निर्वाह नहीं हुआ है, अतः प्रक्रमभंग नामक दोष है।
(१८) न्यूनोपमदोष-जहाँ उपमेयकी अपेक्षा उपमान न्यून जान पड़े वहाँ न्यूनोपमदोष होता है। जैसे-अपनी स्त्रीके बाहु और नखोंसे पीड़ित भरतका शत्रु जंगलमें कंटकोंसे छिद गया ॥२२९॥
अपनी स्त्रीके बाहु और नखोंसे संपीड़ित भरतका शत्रु उसके भयसे वनमें कण्टकसे पीड़ित हुमा । यहाँ नखके स्थानमें कण्टक तो कहा गया है, पर बाहुके स्थानमें कुछ नहीं कहा है, अतः न्यूनोपम दोष है ।
(१९) उपमाधिक-जिस पद्यमें उपमेयको अपेक्षा उपमानकी अधिकता हो वहां अधिकोपम नामक दोष होता है। जैसे- ग्रीष्मऋतुमें शत्रकी पत्नी म्लानकमल और कुमुदवाली नदीके समान मुरझाये हुए मुखवाली हो गयी ॥२३०॥
भरतके शत्रुको म्लान मुखवाली नारीको उपमा नदीमें केवल म्लान कमलके साथ देनी चाहिए थी, पर म्लानोत्पलका अधिक प्रयोग हुआ है।
४. ग्लानास्या....यथा
१. त्यागी-क। २. भग्नप्रक्रमकम्-क-ख । ३. वचनेन-ख ।
पर्यन्त-खप्रतो नास्ति । ____ Jain Education Intmational
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