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२९२ अलंकारचिन्तामणिः
[५।२३९संबन्धेनोज्झितं यत्तद्भिन्नमित्युच्यते यथा। सत्यं नाराधितो धर्मो यदब्धिर्मणिभिश्चितः। ॥२३९।। धर्माराधनाभावस्याब्धे रत्नपूर्णस्य च न संबन्धः । पूर्वापरत्वहानिः स्याद्यत्रापक्रममिष्यते । जगदाह्लादनं कृत्वा पश्चादत्रोदितो 'विधुः ॥२४०।। अत्र उदयोत्तरकालभाविन आलादस्य पूर्वकालत्ववचनात् । अत्यन्तक्रौर्ययुक्तं यत्परुषं कथितं यथा । इमेऽपूपाथिनो बालाः क्षिप्यन्तां दाववह्निषु ॥२४१।। अलंकारोज्झितं यत्तन्निरलंकारकं यथा। दीर्घणोत्थाप्यमानेन मेहनेन तुरंगमः। पृथ्वग्रग्रन्थिनारुह्य वडवां क्लेशयत्यरम् ।।२४२।। स्वभावोक्तिरपि न, श्लाघ्यविशेषणाभावात् । अप्रतीतोपमानं स्यादप्रसिद्धोपमं यथा । मुखानि भान्ति चारूणि कैरवाणीव योषिताम् ।।२४३।।
(५) मिन्नार्थ-जो परस्पर सम्बन्धसे रहित वाक्यार्थवाला हो, उसे भिन्नार्थ दोष कहते हैं । यथा- ठीक ही, धर्मकी आराधना नहीं की, समुद्रको मणियोंसे भर दिया ॥२३९॥
यहाँ धर्माराधनाका अभाव और समुद्ररत्न पूर्णत्वका कोई सम्बन्ध नहीं है ।
(५) अक्रमार्थ दोष-जिस वाक्यार्थमें पूर्वापरका क्रम ठीक न हो उसे अपक्रम दोष कहते हैं । यथा-प्रथम संसारको आनन्दित कर पश्चात् इस संसारमें चन्द्रमा उदित हुआ ॥२४॥
यहाँ उदयके अनन्तर होनेवाले आह्लादको पहले कहा गया है।
(१) परुषार्थ दोष-जो अर्थ अत्यन्त क्रूरतासे युक्त हो, उसे परुषार्थ कहते हैं । जैसे-अपूप मांगनेवाले इन लड़कोंको दावानलमें फेंक दो ॥२४१॥
(७) अलंकारहीनाथं दोष-अलंकारसे परित्यक्त अर्थको निरलंकारार्थ कहते हैं। जैसे-यह अश्व विशाल उठाये हुए विस्तृत अग्रभागके गाँठवाले शिश्नसे चढ़कर वड़वा-अश्वाको पीड़ित करता है ॥२४२॥
यहाँ स्वभावोक्ति अलंकार नहीं है, क्योंकि प्रशंसनीय विशेषणका अभाव है।
(८) अप्रसिद्धोपमार्थ दोष-जिस वाक्यमें उपमान अप्रतीत अर्थात् अप्रसिद्ध हो उसे अप्रसिद्धोपम दोष कहते हैं । जैसे—स्त्रियोंके सुन्दर मुख कैरव-कुमुदके समान शोभित हो रहे हैं ॥२४३।।
१. विभुः-ख ।
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