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अलंकारचिन्तामणिः यत्र वाक्याथसंदेहः ससंशयमिदं यथा। उत्पलानि सरोजानि स्त्रीवक्त्राणि हसन्त्वरम् ॥२४८॥ अत्र केषां कर्मत्वं केषां कर्तृत्वमिति संशयात् । ह्रीकरो मुख्यतोऽन्योऽर्थो यत्राश्लीलमिदं यथा। स्तब्धः पतति रन्ध्रषी यः स नोन्नतिमान् पुनः ॥२४९।। ध्वनिना मेहनप्रतीतेः। सर्वलोकव्यपेतं यदतिमात्रमिदं यथा । वैरिस्त्रीनयनाम्भोभिरसंख्याः सागराः कृताः ।।२५०।। यत्रातुल्योपमानं तदसवृक्षोपमं यथा । वडवानलदग्धोऽब्धिशारदेन्दुरिव व्यभात् ॥२५१।। होनाधिकोपमाने ते हीनाधिक्योपमे यथा। विद्या शुनीव ते भाति बको मुनिरिव व्यभात् ॥२५२।।
(१२) सशयाढ्य-जहाँ वाक्यके अर्थमें सन्देह हो वहाँ संशयाढ्य नामका दोष होता है । जैसे-कुमुद, कमल और स्त्रीमुख शीघ्र हंसें ॥२४८॥
-यहाँ इन तीनोंमें किसको कर्मता और किसकी कर्तृता है, यह निश्चय नहीं होता, इसलिए संशयाढ्य नामक दोष है।
(१३) अश्लील-जिसमें प्रधानतया दूसरा अर्थ लज्जाजनक हो उसे अश्लील दोष कहते हैं । जैसे-छिद्रान्वेषो शिथिल पड़ा हुआ जो गिर जाता है वह फिर उठता नहीं ॥२४९॥
-ध्वनिसे पुरुषचिह्नकी प्रतीति होती है, अतः अश्लील दोष है।
(१४) अतिमात्र दोष-जो सभी लोकोंमें असम्भव हो उसे अतिमात्र कहते हैं । जैसे-शत्रुओंकी नारियोंके नयनजलसे असंख्य समुद्र बना दिये गये ॥२५०॥
(१५) विसदृश-जहाँ उपमान असदृश हो वहां विसदृशोपम दोष होता है । जैसे-बड़वानलसे जला हुआ समुद्र शरद् ऋतुके चन्द्रमाके समान सुशोभित हुआ ॥२५१॥
(१६-१७) समताहीन और सामान्य साम्य-जहाँ उपमान उपमेयको अपेक्षा बहुत अपकृष्ट या उत्कृष्ट हो वहाँ होनाधिक्योपमान या समताहीन दोष होता है । जैसे-तुम्हारी विद्या कुतियाके समान शोभती है । बगुला किसी ध्यान लगाये हुए मुनिके समान शोभता है ॥२५२॥
१. यत्राश्लील....-ख । २. रन्ध्रषो....क-ख । ३. क-प्रती होना ...इत्यस्य पूर्व-तादृशाब्धिचन्द्रयोरसादृश्यात् विद्यते ।
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