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-२७९ ] पञ्चमः परिच्छेदः
३०१ रचनाया अवैषम्यभणनं समता यथा । 'प्रक्रान्तिदोषभङ्गस्य परिहाराय सा मता ॥२७५।। अवनितलगतानां कृत्रिमाकृत्रिमाणां वनभवनगतानां दिव्यवैमानिकानाम् । इह मनुजकृतानां देवराजाचितानां । जिनवरनिलयानां भावतोऽहं स्मरामि ॥२७६।। अत्र पादचतुष्केऽपि तुल्यवत्कथनात् समत्वम् । गाम्भीर्य ध्वनिमत्त्वं तु रीतिः प्रारब्धपूरणम् । पतत्प्रकर्षदोषस्य हानये रीतिरुच्यते ।।२७७।। चन्द्रस्य निष्फलस्याब्धेर्गाढस्य कुलभूभृताम् । नीचैः किं करणेनेति सृष्टश्चक्री विरञ्चिना ॥२७८।। मुख्याद् व्यतिरिक्तः प्रतीयमानो व्यङ्ग्यो ध्वनिः । "समस्तदुःपटच्छन्नजगदुद्योतहेतवे । जिनेन्द्रांशुमते तन्वत्प्रभाभाभारभासिने ॥२७९।।
(४) समता-रचनामें विषमताहीन कथनको समता कहते हैं । प्रक्रान्ति नामक दोषको दूर करने के लिए यह गुण माना गया है ॥२७५।। यथा
मैं पृथ्वीपर विद्यमान कृत्रिम और अकृत्रिम वन, भवनमें स्थित, दिव्य विमानोंमें स्थित मनुष्य, देव और राजाओं द्वारा अचित जिनमन्दिरोंको भक्ति-भावसे नमस्कार करता हूँ ॥२७६।।
-यहाँ चारों चरणों में समान कथनके कारण समता गुण है।
(५-६) गाम्भीर्य और रीति-ध्वनिमत्त्वको गाम्भीर्य कहते हैं और प्रारब्धकी पूतिमात्रको रीति कहते हैं। पतत्प्रकर्ष दोषको दूर करनेके लिए रीति को कहा गया है ॥२७७।।
कलाहीन चन्द्रमा, गहरे समुद्र और कुलपर्वतोंको नीचा दिखानेके लिए ब्रह्माने चक्रवर्ती भरतकी रचना को है क्या ? ॥२७८॥
-यहाँ मुख्यार्थसे भिन्न प्रतीयमान व्यंग्यध्वनि है।
सम्पूर्ण पापरूपी कुवस्त्रसे आच्छादित संसारको प्रकाशित करनेके कारण फैलती हुई प्रभाको कान्तिके समूहसे चमकते हुए जिनेन्द्ररूपी सूर्यको नमस्कार हो ॥२७९॥
१. प्रक्रान्तिभङ्गदोषस्य-क-ख । २. -धिस्य-ख । ३. पृष्टश्चक्री....क-ख । ४. नमस्तमःपटच्छन्न.... क-ख । ५. तन्वत्प्रमाभाभार....क-ख ।
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