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३०० . अलंकारचिन्तामणिः
[ ५।२७२अत्र 'पठनसमये बहूनां पदानामेकपदवदवभासनं न तु पदच्छेदकरणकालादौ।
भावतो वर्तते वाक्यं यत्र तद्भाविकं यथा । तावदर्थपदत्वं यत्, संमितत्वगुणो यथा ॥२७२॥
श्लेषादिगुणानां मध्ये केषांचिद्दोषपरिहारद्वारेण गुणत्वम् । केषांचित्तु स्वत एवोत्कर्षजीवत्वेन गुणत्वम् । तत्र ये स्वत एव चारुत्वातिशयहेतवः सन्ति ते गुणाः। को गुणः कस्य दोषस्य परिहाराय प्रभवतीत्युक्ते तत्र तत्र गुणलक्षणप्रतिपादनप्रस्तावे निगद्यते । यावत्प्रयोजनमस्ति तावत्प्रयोजनपदवत्त्वं संमितत्वं न्यूनाधिकपदपरिहाराय तत् ।
तात नाथ रथाङ्गेश विनीतानगरीपते । लवणाम्बुधिमेतं त्वं पश्य पश्य महामते ॥२७३।। अत्र प्रीतिस्वरूपभावशात् तात नाथेति वाक्यवृत्तिः। यावन्ति जिनचैत्यानि विद्यन्ते भुवनत्रये । तावन्ति सततं भक्त्या त्रिः परीत्य नमाम्यहम् ।।२७४।।
यहाँ पढ़नेके समय एक पदके समान प्रतीति होती है। पदच्छेद करनेके समय एकपदवत् भास नहीं होता। २-३ भाविक और सम्मितत्व
____जहाँ वाक्य भावसे [किसी इष्टके प्रति भक्ति प्रदर्शित] रहे उसे भाविक कहते हैं। जितने पद उतने ही अर्थ जिसमें समाहित हों उसे सम्मितत्व कहते हैं ॥२७२॥
-श्लेष इत्यादि गुणों से कुछमें दोषपरिहारक होनेसे गुणत्व है और कुछमें स्वयं काव्योत्कर्षताके कारण गुणत्व है। कौन गुण किस दोषको दूर करने में समर्थ होता है, इस प्रश्नके उपस्थित होनेपर तद्-तद् गुण विवेचनके प्रसंगमें इसका विचार किया जायेगा, जितना प्रयोजन हो उतना ही पदवाला सम्मितत्व न्यूनाधिक पदके परिहारके लिए कहा गया है।
हे तात ! हे नाथ ! हे चक्रवतिन् ! हे विनीता नगरीके अधिपति ! हे बुद्धिशालिन् ! तुम इस लवणाम्बुधि-समुद्रको देखो ॥२७३॥
-यहां प्रीतिरूप भावके कारण तात, नाथ इत्यादि पद कहे गये हैं।
तीनों लोकों में जितने जिनबिम्ब हैं उन सभीको भक्तिसे तीन बार नमस्कार करता हूँ ॥२७४॥
१. पठनसमये-ख । २. परिहारेण गुणत्वम्-ख । ३. गुणाः सर्वैरिष्टाः दोषपरिहारहेतवस्तु न सर्वे सम्मताः ये दोषाभावं गुणमिच्छन्ति तेषामेव सुकुमारत्वादयो गुणाः । को गुणः....क-ख । ४. वाक्यप्रवृत्तिः -ख ।
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