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-२९०] पञ्चमः परिच्छेदः
३०३ स्वरारोहावरोही द्वौ रम्यौ यत्र गतिर्यथा। आरोप्यतेऽन्यधर्मोऽन्यत्र समाधिर्यथा पुनः ॥२८६॥ सारा वाणी पुरुजिनपते किनाथामिपूज्या हीना दोषैरुरुनययुता मोक्षमार्गावभासा। चञ्चच्छमप्रकटनमयप्रस्फुरच्छुद्धृमुक्तिं तत्त्वज्ञप्तिं नयतु सकलं भव्यवृन्दं विगर्वम् ॥२८७।।
पूर्वार्द्ध दीर्घाक्षरप्रचुरत्वात् स्वरस्यारोहः अपरार्धे ह्रस्वाक्षरत्वेन स्वरस्यावरोहः। .
कोतिः पल्लविता लोके सुतस्य वृषभेशिनः। मानो म्लानो द्विषां लोके "तदाज्ञाया विरोधिनाम् ॥२८८॥ रचनात्युज्ज्वलत्वं यत्काव्ये सा कान्तिरिष्यते। ग्राम्यदोषनिरासाय स्वीकृता सा पुनर्यथा ॥२८९।। जयति भगवान्हेमाम्भोजप्रचारविजृम्भितावमरमुकुटच्छायोद्गीणप्रभापरिचुम्बितौ । कलुषहृदया मानोभ्रान्ताः परस्परवैरिणो विगतकलुषाः पादौ यस्य प्रपद्य विशश्वसुः ।।२९०॥
(१०) गति और (११) समाधि-जहां स्वरके आरोह और अवरोह दोनों ही सुन्दर हों, वहाँ गति नामक गुण होता है और जहाँ दूसरे धर्मका दूसरी जगह आरोप किया जाये वहाँ समाधिगुण होता है ॥२८॥
इन्द्रादि देवताओंसे पूज्य, दोषोंसे रहित, अनुनय सहित, मोक्षमार्ग प्रकाशक जिनेश्वर पुरु महाराजको वाणी उत्तम सुखको प्रकाशित करे और प्रकाशमान शुद्ध मुक्तिके अधिकारी, तत्त्वज्ञानसे युक्त सम्पूर्ण भव्य जीवोंको गर्व रहित करे ॥२८७॥
-पूर्वार्धमें दीर्घ अक्षरोंकी अधिकताके कारण स्वरका आरोह है और उत्तरार्धमें ह्रस्व अक्षरोंको अधिकताके कारण स्वरका अवरोह है।
ऋषभदेव भगवान्के पुत्रका यश संसार में विस्तृत हुआ और उनकी आज्ञाको नहीं माननेवाले शत्रुओं का मान भी फीका पड़ गया ॥२८८॥
(१२) कान्ति-काव्यमें रचनाकी अत्यन्त उज्ज्वलताको कान्ति कहते हैं । ग्राम्यदोषको दूर करनेके लिए विद्वानोंने इस गुणको माना है ॥२८९॥
सुवर्णकमलके प्रचारसे बढ़े हुए, देवताओंको मुकुटमणिसे निकली हुई प्रभासे व्याप्त जिनके चरणोंको प्राप्तकर कलुषित हृदयवाले, उद्भ्रान्त चित्तवाले, परस्पर द्वेषी
१. समादिर्यथा-ख । २. नादाभिपूज्या-ख । ३. दोषैमरुनयन....ख । ४. प्रचुरस्यात्-ख। ५. तदाज्ञया विरोधिना-ख ।
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