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पञ्चमः परिच्छदः स्वीयेतरा च सामान्या नायिका तद्गुणा त्रिधा । सशीला सत्रपा स्वीया प्रगुणा च सती यथा ॥३३७॥ व्रीडानतास्यामजचित्तवाणों, स्वशीलमालायितहारयष्टिम् । बभार वक्षस्युरुपट्टदेवी लक्ष्मीमिव प्रेमकरी निधीशः ॥३३८।। अन्योढा कन्यका चेति सान्या तु द्विविधा मता। सशृङ्गाररसान्योढा कन्यका नीरसा यथा ॥३३९॥ इति स्वेष्टार्थसंवादे वनमाला स्मरातुरा । दूत्या पत्यौ परोक्षे द्रागविक्षद्रराजमन्दिरम् ।।३४०।। स्वाके समारोप्य धवेन केन कुमारि भाव्यं वद चेति सूक्ते । अधोमुखीभूय पितुः पुरस्ताल्लिलेख पादाङ्गुलिभिर्भुवं सा ॥३४१।। सीत्काराश्लेषधीष्ाद्यैरनुरक्तेव जयेत् ।
दातारं नायकं वेश्या सा तु साधारणा यथा ॥३४२।। स्वकोया
शोलवती, लज्जायुक्त, विशेष गुणशालिनो और पतिव्रताको स्वकीया कहते हैं ॥३३७।। उदाहरण
चक्रवर्ती भरतने लज्जासे नोचेको ओर मुख किये हुए सरसचित्त और वाणीवाली, अपने शोलस मालाके समान आचरण करनेवाली हारसे सुशोभित और अधिक प्रेम करनेवाली लक्ष्मीके समान उस राजमहिषोको अपने वक्षस्थलपर धारण किया।॥३३८॥ परकीयाके भेद
परकीयाके दो भेद है-(१) अन्योढा और ( २) कन्या । अन्योढा-अन्य परिणीता शृङ्गारसे अत्यधिक सुसज्जित रहती है और कन्या शृंगारमें अधिक प्रेम नहीं करती, अतएव इसे रसरहित कहा गया है ॥३३९।। उदाहरण
किसी प्रकार अपने अनुकूल कार्यका सन्देश पाकर वनमालासे सुशोभित कामपोडिता कोई परकीया पतिको अनुपस्थितिमें तुरन्त दूतीके साथ राज मन्दिर में प्रविष्ट हुई ॥३४०॥
__'हे कुमारी, बोल, तेरा पति कौन होना चाहिए' अपनी गोदमें लेकर ऐसा अनुरोध किये जानेपर पिताके सामने नीचा मुख किये हुए, वह पैरकी अंगुलियोंसे पृथिवीको कुरेदने लगी ॥३४१।।
गणिका धन देनेवाले नायकको सीत्कार, आलिङ्गन, धृष्टता आदि कार्योंसे प्रेम करनेवाली नायिकाके समान रञ्जित करती है, अतः इसे सामान्या कहते हैं, क्योंकि वह सभीकी स्त्री हो सकती है ॥३४२॥ १. पत्यपरोक्षे-ख । २. धाष्ादेर नु-ख । For Private & Personal Use Only
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