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३०२ अलंकारचिन्तामणिः
[ ५।२८०भणितिर्या विदग्धानामसावुक्तिरितीष्यते । अश्लीलपरिहाराय स्वीक्रियेतात्र साऽपि च ॥२८०।। राज्ञस्ते कमलासक्तिश्चित्तवृत्तः समीक्षिता। 'भास्वकाऽपि त्वया चारुकुमुदाभासनं कृतम् ।।२८१।। पाठकालेऽपि वाक्येऽपि भिन्नभिन्नपदत्वतः । यत्प्रतीयेत तत्प्रोक्तं माधुर्य विदुषा यथा ।।२८२।। दानं ज्ञानधनाय दत्तमसकृत्पात्राय सद्वृत्तये चीन्युग्रतपांसि तेन सुचिरं पूजाश्च बहव्यः कृताः। सीलानां निचयः सहामलगुणैः सर्वः समासादितो "दृष्टस्त्वं जिन येन दृष्टिसुभगश्रद्धापरेण क्षणम् ॥२८३॥ वर्णकोमलता सानुस्वारत्वं सुकुमारता। हान्यै श्रुतिकटुत्वस्य दोषस्य कथिता च सा ॥२८४॥ चन्द्रप्रभं चन्द्रमरीचिगौरं चन्द्रं द्वितीयं जगतीव कान्तम् । वन्देऽभिवन्द्यं महतामृषीन्द्रं जिनं जितस्वान्तकषायबन्धनम् ॥२८५॥
(6) उक्ति-जो काव्यकुशल कवियोंकी भणिति है उसे उक्ति कहते हैं। उक्ति गुण अश्लील दोषको दूर करने के लिए माना गया है ॥२८॥
तेरे राजाको चित्तवृत्तिकी आसक्ति कमलामें दीख पड़ती है । तुमने अपनी ही कान्ति कुमुदको कान्तिके समान कर दी है ।।२८१॥
(6) माधुर्य-पढ़नेके समय और वाक्यमें भी जो पृथक्-पृथक् पदसे प्रतीत होते हैं विद्वानोंने उन्हें माधुर्य गुण कहा है ॥२८२।।
उसने ज्ञानी, सच्चरित्र और सुपात्रको बार-बार दान दिया, कठिन तपस्याएं कों और बहुत पूजा की, स्वच्छ गुणोंके साथ सब प्रकारके सदाचार समूहको उसने पा लिया, जिसने हे देखने में रमणीय जिनेन्द्र भगवान् ! श्रद्धासे युक्त होकर एक क्षणके लिए तुम्हारा दर्शन कर लिया ॥२८३।।
(१) सुकुमारता-अनुस्वार सहित अक्षरोंकी कोमलताको सुकुमारता कहते हैं और यह गुण श्रुतिकटुत्व आदि दोषोंको दूर करने के लिए माना गया है ॥२८४॥
___ मैं उन चन्द्रप्रभ जिनको वन्दना करता हूँ जो चन्द्रकिरण सम गौरवर्णसे युक्त जगत्में द्वितीय चन्द्रमाके समान दीप्तिमान् हैं; जिन्होंने अपने अन्तःकरणके कषाय बन्धनको जीता है और जो ऋद्धिधारी मुनियों के स्वामी हैं तथा महात्माओंके द्वारा वन्दनीय हैं ॥२८५॥
१. शक्तिस्-ख। २. भास्वतापि त्वया चाह....!-क-ख । ३. जीर्णान्युग्ररसांसि....ख । ४. दृष्टस्वम्-ख । ५. कषायबन्धम्-क-ख ।
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