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अलंकारचिन्तामणिः
[ ५।२९१दृढबन्धत्वमौजित्यं विसन्धिविनिवृत्तये । वन्दारुवृन्दपरिघट्टविलोलिताक्षवृन्दारकेश्वरकिरीटतटावकोणः । मन्दारपुष्पनिवहैविहितोपहारं वन्दामहे जिनपतेः पदपद्मयुग्मम् ।।२९१॥ वाक्यान्तरानपेक्षत्वाद् यत्र संपूर्णवाक्यता। अर्थव्यक्तिर्गुणः सोऽयं सोऽपुष्टार्थनिवृत्तये ॥२९२।। जयति जगदीशमस्तकमणिकिरणकलापकल्पिताविधि । जिनचरणकमलयुगलं गणधरगणनीयनखरकेसरकम् ॥२९॥ विकटाक्षरबन्धत्वं यत्रौदार्य मतं यथा।' दोषान् काँश्चन तान् प्रवर्तकतया प्रच्छाद्य गच्छत्ययं सार्द्ध तैस्सहसा मते यदि गुरुः पश्चात्करोत्येष किम् । तस्मान्मे न गुरुगुरुगुरुतरात्कृत्वा लघंश्च स्फूट ब्रूते यस्सततं समीक्ष्य निपुणं सोऽयं खलः सद्गुरुः ॥२९४||
मनुष्य भी पाप रहित होकर विश्वस्त हो गये, वे भगवान् सर्वश्रेष्ठ हैं अर्थात् उनकी जय हो ॥२९॥
(१३) और्जित्य-दृढबन्धताको औजित्य कहते हैं, विसन्धि दोषको निवृत्तिके लिए यह गुण माना गया है।
वन्दना करनेवालोंके समूहकी भीड़से चंचल नेत्रवाले देवाधिपतियोंके मुकुटतल. में व्याप्त मन्दारके पुष्पोंसे उपहार प्राप्त जिनेश्वर भगवान्के कमलके समान दोनों चरणोंको नमस्कार करता हूँ ॥२९१॥
(१४) अर्थव्यक्ति-जहाँ दूसरे वाक्यकी अपेक्षा न रखनेपर वाक्य पूर्ण हो जाये उसे अर्थव्यक्ति कहते हैं । यह अपुष्ट दोषको दूर करनेके लिए माना गया है ।।२९२॥
देवराजोंके-इन्द्रोंके मस्तकमणिकी किरणोंके समूहसे सम्पन्न अर्घविधिको प्राप्त करनेवाले जिनेन्द्र भगवान जयवन्त हों। इन जिनेन्द्र भगवान्के नख केशर गणधरोंके द्वारा वन्दनीय हैं और जिनके दोनों चरणारविन्द जगत्में श्रेष्ठ हैं ।।२९३।।
(१५) औदार्य-विकट अक्षरोंकी बन्धताको औदार्य कहते हैं । यथा
यह प्रवर्तक होने के कारण उन कुछ दोषोंको छिपाकर जाता है। उन दोषोंके साथ अचानक मर जानेपर यदि गुरु पीछा करता है तो यह क्या ? इसलिए मेरा गुरु गुरु नहीं है । अतिशय श्रेष्ठको भी स्पष्ट रीतिसे लघु बनाकर सर्वदा कुशलता पूर्वक जो बोलता है, वह खल सद्गुरु है । २९४।।
१. कल्पितार्यविधि क-ख । २. तन्मीनेन गुरुर्गुरु-ख ।
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