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३०६ अलंकारचिन्तामणिः
[५।२९९शब्दानां गूढसंजल्परूपता सोक्षम्यमिष्यते । समासबहुलत्वं स्यादोजोगुण इह स्फुटः ॥२९९॥ 'णूश्रोअपूजनमःकर्मण्यत्र वृत्ता न कर्तरि । जिने णिज्ञाभिदः कर्तर्येव कमणि नो मताः ॥३०॥
जिनो नूयते श्रीयते पूज्यते नम्यते स्तवनीयः आश्रयणीयः पूजनीयो नमनीय एव न तु स पुनरन्यं नुवति श्रेयति पूजयति नमतीति । नयति तत्त्वमुपदिशति जानाति भिनत्ति कर्माद्रिमिति गूढमन्तःसंजल्पनस्वरूपत्वेन सोक्षम्यम्।
जयति जगदोशमस्तकमणिकिरणकलापकल्पितानिधि । जिनचरणकमलयुगलं गणधरगणनीयनखरकेशरकम् ॥३०१॥ 'समर्थनार्थमुक्तार्थप्रपञ्चोक्तिस्तु विस्तरः । अभिषेक्तुपुरुं द्रष्टुमिन्द्र एकः क्षमो जिनम् । यद्बाहवः सहस्र यन्नेत्राण्यपि महोत्सवे ॥३०२॥
(१७) सौम्य और ओज-शब्दोंके गुण, रोतिके कथनको सौक्षम्य कहते हैं तथा जिसमें समासको बहुत अधिकता हो उसे स्पष्टतया ओजगुण कहते हैं ॥२९९।।
जिनेश्वरके विषय में णू स्तवने, Vश्रीञ् श्रयणे, / पूज् पूजायाम्,/ नम् स्तवने इन धातुओंसे कर्ममें ही प्रत्यय होते हैं, कमें नहीं तथा/णि प्रापणे, / ज्ञा अवगमने, V भिद् विदारणे इन धातुओंसे कर्नामें ही प्रत्यय हो सकता है, कर्ममें नहीं ॥३०९॥
जिनेश्वर स्तुति करने योग्य हैं, आश्रय करने योग्य हैं, पूजन नमस्कार करने योग्य है । अर्थात् सभी उसे नमस्कार करते हैं वे किसीको स्तुति नहीं करते, आश्रय नहीं लेते, पूजा और नमस्कार किसीको नहीं करते । वे उपदेश देते हैं, सब कुछ जानते हैं और कर्मरूपी पर्वतको विदारण करते हैं। इस प्रकार भीतरी कथन अत्यन्त गुप्त है, अतः सोक्षम्यगुण है।
देवराजोंके मस्तकमणिकी किरणोंसे अर्घविधिवाले गणधरोंसे पूजने योग्य नखकेशरवाले जिनेश्वर भगवान्के चरणकमल जय प्राप्त करें ॥३०१॥
(१९) विस्तर-किसी विषयके समर्थन के लिए कथित अर्थक विस्तारको विस्तर कहते हैं। जैसे-आदि तीर्थंकर भगवान् पुरुदेवके अभिषेक या दर्शनके लिए केवल इन्द्र ही समर्थ है, यतः उसके बाहु और हजार नेत्र जन्माभिषेक उत्सवमें जिनेश्वरका अभिषेक करने और देखने में समर्थ हैं ॥३०२॥
१. श्री न जिनाय नमः-ख । २. वृत्त-ख । ३. णिज्ञाभिधेः । ४. श्रियते-ख । ५. श्रवति -ख । ६. –खप्रती नयति पदं नास्ति । ७. कल्पितायविधि-ख । ८. समर्थमुक्तार्थ-ख ।
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