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-२९८ ] पञ्चमः परिच्छेदः
३०५ पदानामथंचारुत्वप्रत्यायकपदान्तः। मिलितानां यदादानं तदौदार्य स्मृतं यथा ॥२२५।। इति वाग्भटोक्तिरपीष्टा । श्रीलीलायतनं महीकुलगृहं कोर्तिप्रमोदास्पदं वाग्देवीरतिकेतनं जयरमाक्रीडानिधानं महत् । स स्यात्सर्वमहोत्सवैकभवनं यः प्रार्थितार्थप्रदं प्रातः पश्यति कल्पपादपदलच्छायं जिनाघ्रिद्वयम् ॥२९॥
श्रियो लक्ष्म्या विलासगृहं स प्रातः जिनपदयुगं दृष्ट्वा स्याद्भवेत् भवितुमर्हतीत्यर्थः । स्यादित्यत्र तृध्यप् चाहं इत्यनेन लिङ् ।
शब्दार्थयोः प्रसिद्धत्वं झटित्यार्पणक्षमम् । प्रसादः क्लिष्टदोषस्य परिहाराय स स्मृतः ।।२९७॥ यस्य विज्ञानकोणस्थौ लोकालोकावणपमौ । तस्मै वीरजिनेन्द्राय नमस्तत्पदलब्धये ॥२९८।।
अर्थकी चारुताके प्रत्यायक पदके साथ वैसे ही अन्य पदोंकी सम्मिलित योजनाको औदार्य कहते हैं ॥२९५॥
इस प्रकार कहा हुआ वाग्भटका मत भी अभीष्ट है।
जो मनुष्य इष्ट वस्तुको देनेवाले तथा कल्पवृक्षके कोमल पत्तोंकी कान्तिके समान सुन्दर जिनेश्वर भगवान्के चरणारविन्दोंका प्रातः दर्शन करते हैं, वे शोभा और सम्पत्तिका कोड़ाभवन भूमि इत्यादि स्थायी सम्पत्तिका आश्रय, यश और आनन्दका पात्र, सरस्वतीके आनन्दका ध्वज, विशाल विजयरूपी लक्ष्मोका कोश और सभी प्रकारके उत्सवोंका अद्वितीय महान् स्थान बन सकते हैं ॥२९६॥
प्रातःकाल जिनेश्वरके चरणोंके दर्शनसे मनुष्य लक्ष्मीका विलासभवन हो सकता है अर्थात् उसके यहाँ लक्ष्मीका स्थायी वास सम्भव है। 'स्यात्' इस पदमें "तृध्यप् चाहः" इस सूत्रसे लिङ्लकार हुआ है।
(१६) प्रसाद-शब्द और अर्थकी प्रसिद्धि तथा झटिति अर्थको समझा देनेकी क्षमताको प्रसादगुण कहते हैं। यह क्लिष्ट दोषको दूर करनेके लिए माना गया है ॥२९॥
जिस जिनेश्वर भगवान्के केवलज्ञानके कोनेमें लोक और अलोक परमाणुओंके समान भासित होते हैं उन वीर जिनपतिको उनके पदकी प्राप्तिके लिए मैं वन्दना करता हूँ ॥२९८॥
१. निदानम्-ख । २. त्व ध्य वा हन् इत्यनेन लिङ्-ख ।
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