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पञ्चमः परिच्छेदः विरुध्येत दिगाद्येन विरुद्धं बहुधा यथा । उत्तरस्यां दिशि प्राज्यप्रभयोदेति भानुमान् ॥२५३।। अत्र दिग्विरोधः। मरुदेशे सरस्तृष्णाहरं भाति सुशीतलम् । महीशानां विषाणेभ्यो मौक्तिकान्युद्भवन्त्यरम् ॥२५४।। देशविरोधस्तदनु लोकविरोधः । धर्मः पुरुषवर्तित्वात्पापहेतुरधर्मवत् । वन्ध्या मे जननी भाति शीतलो वह्निराबभौ ।।२५५।। आगमस्ववचनप्रत्यक्षविरोधाः । चुम्बनालिङ्गनायेन नोवीविस्रंसनेन च । अन्तस्तुष्टां वधूं रम्यां शिशुराक्रीडति स्फुटम् ॥२५६।। अवस्थाविरोधः। दोषस्तु रसभावानां स्वस्वशब्दग्रहाद् यथा । शृङ्गारमधुरां तन्वीमालिलिङ्ग घनस्तनीम् ।।२५७।।
(१८) विरुद्ध—दिशा इत्यादिसे प्रायः जो विरुद्ध प्रतीत हो उसे विरुद्ध दोष कहते हैं। जैसे-उत्तर दिशामें सूर्य बहुत अधिक प्रभासे उदित होता है। सूर्यका उत्तर दिशामें उदित होना विरुद्ध है, अतः यहां विरुद्ध दोष हुआ ॥२५३॥ देशविरुद्ध और लोकविरुद्ध
___ मरुभूमिमें अत्यन्त शीतल तालाब पिपासाको दूर करनेके लिए शोभित हो रहा है । राजाओंके शृगोंसे शीघ्र मोती उत्पन्न होते हैं। प्रथम देशविरुद्धका और द्वितीय लोकविरुद्धका उदाहरण है ॥२५४॥ आगम-स्ववचन-प्रत्यक्ष विरोध
पुरुषमें रहने के कारण अधर्मके समान धर्म भी पापका कारण है। मेरी वन्ध्या माता शोभित होती है। शीतल अग्नि चमकती है ॥२५॥
प्रथम उदाहरणमें आगम विरोध है, द्वितीयमें स्ववचन विरोध है और तृतीयमें प्रत्यक्ष अनुभूतिजन्य विरोध है ।
अवस्था विरोध-छोटासा बच्चा भीतर ही भीतर अत्यन्त प्रसन्न हो कामिनीके साथ चुम्बन, आलिंगन एवं नीवीस्खलन इत्यादि काम-क्रीड़ाओंको स्पष्ट रूपसे करता है ॥२५६॥
यहाँ अवस्थाविरोध है, यतः छोटा शिशु काम-क्रीड़ाओंको करने में असमर्थ है ।
नामदोष-रस या भावोंका नामोल्लेख करनेसे नामदोष होता है जैसेशृंगारसे मधुर और विशाल स्तनवाली कृशाङ्गीका आलिंगन किया ॥२५७॥ For Private & Personal Use Only
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