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२९६ अलंकारचिन्तामणिः
[५।२५८स्वशब्दग्रहणमत्र शृङ्गाररसे दुष्यति । सलज्जा पतिवक्त्राब्जे सेा वक्षोरमास्त्रियाम् । सविस्मयेन्द्रनाट्येऽभून्मरुदेवी मनोहरा ॥२५८।। अत्र संचारिभावे लज्जापदग्रहणं दुष्यति । श्रूयमाणैर्झणत्कारैरायुधानां परस्परम् । हत्याजाते रणे तस्याभूदुत्साहोऽन्यदुर्लभः ।।२५९।। अत्र स्थायिभावस्योत्साहस्य स्वशब्दग्रहणेन दोषः । रति जहाति बुद्धिं स्वां लुनीते स्खलति स्फुटम् । करोति परिवृत्तिं च 'सेत्यालीनामभूद्वचः ।।२६०।।
अत्र रत्यादित्यागस्य करुणेऽपि संभवाद् विप्रलम्भे रत्यादित्यागानुभावस्य कष्टकल्पना।
आगः सहस्त्र पश्यास्यं प्रसीद प्रियमालप। मुग्धे गलति कालोऽत्र घटीयन्त्रजलं यथा ॥२६॥
शृगार शब्दका नाम लेनेके कारण नाम दोष है।
प्रियतमके मुखकमलके सामने लज्जायुक्त सुन्दर वक्षवाली रमा इत्यादि स्त्रियों में ईर्ष्यायुक्त इन्द्रके नाट्यमें आश्चर्यचकित मरुदेवी अत्यन्त सुन्दर प्रतीत हुई ॥२५८॥
यहां संचारी भावमें लज्जाका नामोल्लेख होनेके कारण भावनामक दोष है ।
हथियारोंके परस्पर टकरानेके कारण सुनाई पड़ती हुई झनझनाहटसे हत्या होनेवाले युद्ध में दूसरोंमें नहीं पाया जानेवाला उसका उत्साह हुआ ॥२५९॥
यहां वीर रसके स्थायी भाव उत्साहका नामोल्लेख होनेसे भावनामक दोष है ।
वह रतिका त्याग कर रही है, अपनी बुद्धिको छिन्न कर रही है, स्पष्ट रीतिसे भ्रान्त हो रही है और करवट बदल रही है। इस प्रकार सखियोंकी परस्पर बातें हुई।।२६०॥
यहां रति इत्यादिके त्यागकी सम्भावना करुण रस में भी हो सकती है । विप्रलम्भ शृंगारमें रति इत्यादिके त्याग स्वरूप अनुभावके कष्टप्रद कल्पना होनेसे दोष है।
हे सरल चित्तवाली ! अपने प्रियतमके अपराधको सहन करो। उसके मुखको देखो । प्रसन्न हो जाओ। उससे मधुर वार्तालाप करो । यहाँ पानी भरनेवाले घटीयन्त्रके समान समय चला जा रहा है ।।२६१॥
१. सेव्यालीना-क-ख ।
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