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पञ्चमः परिच्छेदः मुखानां कैरवाण्युपमानत्वेन कविजनेषु न प्रसिद्धानि । यत्रार्थकथनं हेतुरहितं हेतुशून्यकम् । वने 'च्यूतादिरम्येऽत्र विहर्तुन क्षमा वयम् ॥२४४॥ कुत इत्युक्त हेतु!क्तः। रसस्याप्रस्तुतस्योक्तियंत्र तद्विरसं यथा। गच्छत्सशोककामिन्यश्चुम्बिताः शंबरैर्वने ॥२४५।। चक्रिरिपुकान्ताः स्वपतिवियोगशोकिन्यः चुम्बिता इति विरसत्वम् । शृङ्गारादिरसत्यागी चैतद्वा विरसं यथा। गौरेकवालधिः साध्रिचतुष्को द्विखुरो व्यभात् ॥२४६।। भवेत्सहचरभ्रष्टं तुल्यवस्त्वप्रबन्धतः । रतं स्मरेण सद्बोधः शास्त्रेण वनिता ह्रिया ॥२४७।। सद्बोधेन वनितारतयोरप्रकर्षात्ताभ्यां वा तस्याप्रकर्षात् । -कवि परम्परामें कैरव उपमान मुखके लिए प्रसिद्ध नहीं है ।
(५) हेतुशून्य दोष-जहां अर्थका कथन कारण बिना हो वहाँ हेतुशून्य दोष होता है । जैसे-आम्र इत्यादिसे रमणीय इस वनमें हम घूमने में असमर्थ हैं ॥२४४॥
-क्यों असमर्थ हैं, इसका कारण नहीं कहा गया है।
(१०) विरस दोष-जहां अप्रस्तुत रसका कथन हो उसे विरस दोष कहते हैं । जैसे-वनमें गमन करती हुई पतिवियोगजन्य शोकसे पोडित शत्रनारियोंका भिल्लोंने चुम्बन किया ॥२४५।।
-चक्रवर्ती भरतके शत्रुओंकी पतिवियुक्ता, शोकग्रस्त कामिनियोंका चुम्बन किया जाना श्रृंगार रसके स्थानपर विरसता उत्पन्न करता है।
अथवा शृंगार इत्यादि रसोंके त्याग करनेवाले वाक्यार्थको विरस कहते हैं । जैसे-एक पूँछ, चार पैर और दो खुरवाला वृषभ सुशोभित हुआ। इसमें कोई रस न होनेसे विरस दोष है ॥२४६।।
(११) सहचरभ्रष्ट-जिस वाक्यार्थमें सदृश पदार्थका उल्लेख न हुआ हो वहाँ सहचरभ्रष्ट नामका दोष होता है। जैसे-कामसे सुरत, शास्त्रसे उत्तम ज्ञान तथा लज्जासे वनिता [ शोभित होते हैं ] यहां सदृश वस्तुका उल्लेख न होनेसे सहचरभ्रष्ट नामका दोष है ॥२४७।।
~ सद्बोधसे वनिता और सुरतमें कोई प्रकृष्टता नहीं हुई है और न उन दोनों (वनिता और सुरत) से सद्बोधमें प्रकर्ष होता है।
१. चूतादिरम्ये....-ख । २. तद्बोधः-ख ।
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