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पञ्चमः परिच्छेदः
एकापव्यर्थं भिन्नाक्रमपरुषगतालंकृतीन्यप्रसिद्धसादृश्यं हेतुशून्यं विरससहचरभ्रष्ट के संशयाढ्यम् । अश्लीलं चातिमात्रं विसदृशसमताहीन सामान्यसाम्ये लोकायुक्त्या विरुद्धं स्युरिति कविमतेऽष्टादशैतेऽर्थं दोषाः ||२३५|| अभिन्नार्थंकमुक्तेन यदेकार्थमिदं यथा ।
तुष्टः पीनस्तनीं दृष्ट्वा हृष्टो वीक्ष्य पृथुस्तनीम् ॥ २३६ ॥ वाक्यार्थरहितं यत्तदपार्थं मिह तद्यथा । दाराः के मेरुरुत्तुङ्गो नद्यः शुक्रास्तु के'
गजाः ।।२३७||
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'अत्र कोऽपि समुदायार्थो न पुष्टः । प्रयोजनोज्झितं प्रोक्तं यत्तद्व्यर्थमिदं यथा । शौर्याब्धिस्ते महान् बंग किमु चक्री न सेव्यते ॥ २३८||
भो बंगदेशाधिप शौर्याब्धिस्ते महानिति स्तुतिश्चक्री सेव्यतामित्युपदेशे न युज्यते ।
-२३८ ]
अर्थदोष-— अर्थदोष अठारह होते हैं - ( १ ) एकार्थ (२) अपार्थ (३) व्यर्थ ( ४ ) भिन्न (५) अक्रम ( ६ ) परुष ( ७ ) अलंकारहीनता ( ८ ) अप्रसिद्ध ( ९ ) हेतुशून्य (१०) विरस (११) सहचरभ्रष्ट ( १२ ) संशयाढ्य (१३) अश्लील (१४) अतिमात्र (१५) विसदृश (१६) समताहीन ( १७ ) सामान्य साम्य (१८) विरुद्ध ॥ २३५॥
( १ ) एकार्थ - कहे हुए अर्थ से जो भिन्न न हो, उसे एकार्थं कहते हैं । यथाकोई व्यक्ति पीनस्तनीको देखकर सन्तुष्ट हुआ और पृथुस्तनीको देखकर प्रसन्न हुआ । यहाँ पीनस्तनको देखकर सन्तुष्ट हुआ, इसी अर्थको पृथुस्वनीको देखकर प्रसन्न हुआ, द्वारा कहा गया है । अतः एकार्थ दोष है ॥२३६॥
( २ ) अपार्थ - जो पद्य वाक्यार्थसे रहित हो, उसे अपार्थ कहते हैं । जैसे'दारा: ' के इस पंक्ति में शब्दोंका पृथक्-पृथक् अर्थ तो है, किन्तु समुदायरूप वाक्यका अर्थ नहीं है, अतः अपार्थ दोष है || २३७||
यहाँ किसी भी समुदायार्थकी पुष्टि नहीं होती है ।
(३) व्यर्थ - जो प्रयोजनसे रहित वाक्यार्थवाला हो, उसे व्यर्थ कहते हैं; जैसेहे बंगनरेश, तुम्हारा शौर्यसागर महान् है, तुम चक्रवर्ती भरतकी सेवा क्यों नहीं करते ||२३८ |
२९१
बंगदेश अधिपति तुम्हारा शौर्यसागर महान् है, यह प्रशंसा है, चक्रीको सेवा करो, यह उपदेश है । अतः प्रशंसाकी प्रयोजनरहितता होनेसे व्यर्थ दोष है ।
१. ते के इत्यस्य स्थानं ते ख । २. अत्र कोऽपि सोऽपि समुदायार्थों पुष्टः - ख । ३. पवनेनोज्झितं....ख ।
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