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अलंकार चिन्तामणिः
वाक्येऽधिकपदानि स्युर्यत्राधिकपदं यथा । धर्मं प्रणयति प्राज्यं धर्मं राजस्तथागतः ॥। २३१ ।। लिङ्गोक्ति: चोपमाभिन्ने भिन्नलिङ्गोक्तिकद्वयम् । मनो गम्भीरमब्धिर्वा हारस्ते निर्झरा ईव ||२३२ || समाप्तपुनरात्तं स्यात् समाप्तस्वीकृतिः पुनः । बहुदुःखास्पदेऽरण्ये तिष्ठामः क्रूरभल्लुके || २३३॥ बहुदुःखास्पदेऽरण्ये तिष्ठाम इति समाप्य क्रूरभल्लुक इति पुनः स्वीकारात् । क्रियान्वयो न संपूर्णो यत्रापूर्णमिदं यथा ।
श्वभ्रेऽस्माकं स्थितिः क्रूरैः सखान् पश्यन् जिनः स्थितः ॥ २३४ || नारकक्रूरबान्धवान् नरकवासानस्मान् पश्यन्निति वक्तुमिष्टो न संपूर्णः ।
( २० ) अधिकपद - जिस वाक्य में अधिक पद होवें, वह अधिकपद नामका दोष होता है । जैसे - तथागत धर्मराज बहुत अधिक धर्मका प्रवचन करते हैं ॥२३१॥
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(२१-२२) भिन्नोक्ति और भिन्नलिंग - उपमाकी भिन्नता में लिंगांवित और भिन्नलिंगोक्ति नामक दोष होते हैं । जैसे - मन गम्भीर है या समुद्र । यहाँ मन नपुंसक है; अतः 'अब्धि:' को भी नपुंसक लिंग होना चाहिए तथा 'ते हार: निर्झरा इव' में हार एकवचन और निर्झरा बहुवचन है, अतः भिन्नवचनोक्ति दोष है । इसी प्रकार 'मनो गम्भीरमब्धि:' में 'मन' नपुंसक लिंग है और 'अब्धि:' पुंलिंग है, अतः भिन्नलिंगोक्ति दोष है || २३२||
(२३) समाप्तपुनरात्त- – समाप्त वाक्यको पुन: दूसरे विशेषणसे जहाँ कहा जाये वहाँ समाप्तपुनरात्त दोष होता है । जैसे—बहुत दुःखके स्थान जंगलमें हमलोग रहते हैं, इस वाक्यके समाप्त हो जानेपर बहुत भालूवाले जंगलमें, यह विशेषण कहा गया है, अतः यहाँ समाप्तपुनरात्त नामका दोष है ॥ २३३ ॥
बहुत दुःखके स्थान जंगलमें रहते हैं, इस वाक्यको समाप्तकर क्रूर भालूवाले यह विशेषण पुनः प्रयुक्त हुआ है, इसलिए उक्त दोष है ।
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(२४) अपूर्ण दोष - जिसमें सम्पूर्ण क्रियाका अन्वय न हो, वहाँ अपूर्ण दोष होता है । जैसे – नरकके क्रूर जीवोंके साथ हमारी स्थिति है, इसलिए नरकवासी हम लोगोंको देखते हुए ऐसा कहना इष्ट था, जो नहीं कहा गया, इसलिए अपूर्ण नामक दोष है ।। २३४ ||
नरकके क्रूर बन्धुओंको तथा नरकवासी हम लोगों को देखते हुए यह कहना इष्ट था, जो नहीं कहा गया है, अतः अपूर्ण दोष है ।
१. लिङ्गोक्तक.... ख । २. निर्झरास्तव - ख ।
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