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अलंकारचिन्तामणिः
[५।२२५पूर्वार्द्ध ओत्वं विसर्गस्य 'बहुधान्यत्र तु लोपः। अन्यवाक्यपदाकीणं वाक्यसंकीर्णमिष्यते । खङ्गःप्राप्नोति तद्बाही यशो बाभाति दिक्तटम् ।।२२५॥
यशो दिक्तटं प्राप्नोति तद्बाही खड्गो बाभातीति वाक्यद्वयपदानां परस्परसङ्कीर्णता।
यस्य वाक्यान्तरं मध्ये भवेत् तद्वाक्यगर्भितम् । जिनेनोक्तो विधुः खेऽभाद् धर्मो रक्षति विष्टपम् ॥२२६॥
जिनेनोक्तो धर्मो लोकं पातीति वाक्यमध्ये खे विधुरभादिति भिन्नवाक्यप्रवेशः।
पतत्प्रकर्षमेतत्स्यात्प्रकर्षो विश्लथो यथ।। धावदेणे चलव्याने विन्ध्यारण्येऽरयः स्थिताः ॥२२७॥ सचलद्व्याघ्र पलायमानहरिणे इति वक्तव्ये न तथोदितम् । पूर्वार्धमें ओत्व और उत्तरार्धमें विसर्गलोप आया है।
(१४) वाक्याकीण-दूसरे वाक्यके पद दूसरे वाक्यमें व्याप्त हों वहाँ वाक्यसंकीर्ण नामक दोष होता है। यथा---उसके बाहुपर तलवार गिरती है और उसका यश दिशाओंके अन्त में बार-बार प्रकाशित होने लगता है ॥२२५।।।
यश दिशाओंके अन्तमें पहुँचता है और उसके बाहुओंपर तलवार चमकती है। इन दोनों वाक्योंके पद परस्परमें मिले हुए हैं।
(१५) सुवाक्यगर्मित-जिस वाक्यके बीचमें दूसरा वाक्य आ पड़े, उसे सुवाक्यभित कहते हैं। यथा-जिनेश्वरसे कहा हुआ धर्म तीनों लोकोंकी रक्षा करता है, इस वाक्य के बीचमें चन्द्रमा आकाशमें चमकता है, यह वाक्य आ पड़ा है, इसलिए यहाँ वाक्यगर्भित नामका दोष है ॥२२६।।
जिनप्रोक्त धर्म 'लोकं पातीति' वाक्यके मध्यमे 'खे विधुरभादिति' भिन्न वाक्य प्रविष्ट हो गया है।
(१६) पतत्प्रकर्षता-जिस पद्यमें क्रमशः प्रकर्ष शिथिल सा दीख पड़े उसमें पतत्प्रकर्षता नामका दोष होता है। जैसे-घूमते हुए व्याघ्रवाले तथा दौड़ते हुए हिरणवाले विन्ध्याचल पर्वतके जंगलमें शत्रु भागकर छिप गये ॥२२७।।
यह अच्छी तरहसे घूमते हुए व्याघ्रवाले तथा दौड़ते हुए हिरणवाले विन्ध्य जंगल में कहना चाहिए था, किन्तु नहीं कहा गया, इसलिए दोष है ।
१. बहुधान्यस्य लोपः -ख ।
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