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पञ्चमः परिच्छेदः
वाक्सुधां पिबन्नास्यं पश्यन्नित्यन्वयः ।
वाक्यं शब्दार्थयोः पौनरुक्त्ये तत्पुनरुक्तिकम् | भात्यास्थाने विभुः 'सायमास्थानविहित स्थितिः ॥ २२१ ॥
समासो नोचितो यत्र ह्यपदस्थसमासकम् । कुतोऽस्मासु विधिदु दृगिति रक्ताम्बकाननाः ॥२२२||
कुतोऽस्मासु विमुख निधिरिति ब्रह्मणे कुप्यतां रिपूणां वचने न समासः,
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अपि तु कविवचने समासः कृत इत्यस्थानस्थसमासः ।
विसर्गो बहुधा यत्र लोपमोत्वं च वाप्नुयात् । प्रोक्तं लुप्तविसर्गं तद् वाक्यदोषविदा यथा ॥२२३॥ मनोहरो मनोऽभीष्टो वरो धर्मो जिनोदितः । पूज्या वन्द्या वरा वीरा गण्या वीरा जिना इमे ॥ २२४ ॥
यहाँ पुरुके उक्ति अमृत और दोष है अर्थात् वाक्य रूपी अमृतको पोता अन्वय है ।
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आनन दोनों में पिबन् व्याप्त रहनेसे व्याकीर्ण हुआ और मुँहको देखता हुआ इस प्रकार
(१३) पुनरुक्त दोष - शब्द और अर्थकी पुनरुक्ति होनेपर पुनरुक्तत्व नामका दोष होता है । यथा - सायंकाल सभामण्डप में स्थिति करनेवाले विभु सर्वव्यापक सभामण्डप में सुशोभित हो रहे हैं । यहाँ 'आस्थान' शब्दकी पुनरुक्ति है || २२१ ।
(१२) अस्थिति समास - जिस पद्य में समास उचित नहीं है वहाँ अपदस्थ समास नामका दोष होता है । यथा - हम पर विधि रुष्ट है, अतः हमारे पास रक्ताम्बकानन कहाँ है । २२२ ॥
क्या हमपर विधि विमुख है, इस प्रकार ब्रह्मापर कुपित होनेवाले शत्रुओंके वचन में समास नहीं है, इसके विपरीत कविके वचन में समास है, अतः यह अस्थिति समास नामक दोष है ।
(१३) विसर्ग लुप्त - जहाँ विसर्ग अधिकतर ओत्व या लुप्तको प्राप्त हो उसे वाक्यदोष के जानकारोंने लुप्तविसर्ग नामक दोष कहा है || २२३ ॥ यथा
जिनेश्वर से कहा हुआ धर्म अच्छा, मनोहारी और मनकी अभिलाषाको पूर्ण करनेवाला है | यहाँ अनेक बार विसर्गका ओत्व हुआ है । 'मनोहरो मनोऽभीष्टो वरो धर्मो' आदिमें विसर्गका ओत्व है तथा पद्य के उत्तरार्ध में अनेक बार विसर्गका लोप हुआ है ॥२२४॥
१. सोयमा - ख । २ इत्यस्थानसमासः - ख ।
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