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पञ्चमः परिच्छेदः भूतानां जीवानां लोपं करोतीति विरुद्धार्थमतिकृत् । यत्पामरप्रयोगे तु प्रसिद्धं ग्राम्यमिष्यते । योषितो गल्लमालोक्य दर्पणं स्मरति स्म सः ।।१९८॥ गल्लशब्दस्य कपोलवाचकतया ग्राम्यप्रयोगः । यंत्रार्थनिश्चयो दूरदरः क्लिष्टमिदं यथा । जिनो रात्वीश्वरापोडसमुत्पत्तिस्थलोद्भवाम् ।।१९९।।
ईश्वरस्यापीडचन्द्रसमुत्पत्तिस्थलं समुद्रस्तत्र जातां लक्ष्मीमित्यतिदूरत्वम् ।
कविभिनं प्रयुक्तं तदप्रयुक्तं मतं यथा । प्रमाणाः पुरुषाः सर्वे स्याद्वादन्यायवेदिनः ॥२०॥ प्रमाणा इति कविप्रयोगाभावः। अर्थसंदिग्धकारि स्यात्तत्संदिग्धमिदं यथा। जायते नितरां क्रीडा नितम्बेषु महीभृताम्।।२०१॥
यहां भूतलोपकृत् अर्थात् प्राणियोंका लोप करनेवाला इस अर्थको प्रतीतिको सम्भावनाके कारण विरुद्धार्थमतिकृत् दोष है । ग्राम्यदोषका स्वरूप और उदाहरण
जो शब्द तुच्छ व्यक्तियोंके प्रयोगमें प्रसिद्ध है, उसे ग्राम्यदोष कहते हैं । यथावह नारोके कपोलको देखकर दर्पणका स्मरण करता है ॥१९८॥
इस पद्य में 'गल्ल' शब्दका प्रयोग कपोल अर्थ में किये जानेके कारण ग्राम्यदोष है। क्लिष्टार्थ दोष और उसका उदाहरण
जिस पद्यमें अर्थका निश्चय दूर तक कल्पना करनेपर होता हो उसे क्लिष्ट कहते हैं। यथा-जिन भगवान् चन्द्रके उत्पत्तिस्थान समुद्रसे उत्पन्न लक्ष्मीको प्रदान करें ॥१९९॥
कवियोंके द्वारा जिसका प्रयोग न हुआ हो उसे अप्रयुक्त कहते हैं । यथास्याद्वादन्यायके जाननेवाले सभी पुरुष प्रमाण हैं ॥२०॥
'प्रमाणाः' ऐसा प्रयोग कवि लोग नहीं करते हैं, यहाँ यह शब्द अप्रयुक्त है, अतएव अप्रयुक्त दोष है। संदिग्धत्व और उसका उदाहरण
जो अर्थ सन्देहजनक हो, उसे सन्दिग्धत्व कहते हैं। यथा-राजाओंको क्रीड़ा नितम्बोंपर सदा हुआ करती है ॥२०१।।
१. यत्रार्थयो दूरतरः -ख । २. चन्द्रस्तस्य समुत्प....ख । ३. अर्थसन्देहकारि....क-ख ।
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