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पञ्चमः परिच्छेदः परुषाक्षरक्लप्तं यत परुषं कथितं यथा। 'उर्वतिर्नोपदेष्टा स्यात्स्रष्ट्रा धर्मान्निरूपितात् ॥२०५।। अविमृष्टविधेयांशं विधेयगुणता यथा । व्यर्थप्रतापशत्रूणां कथं वृत्तिस्तु सह्यते ॥२०६॥ प्रतापस्य व्यर्थत्वेन मुख्यतया विधेये तस्य गौणत्वं प्रतीयते । विशेषावचनं यत्तदप्रयोजकमुच्यते । तत्त्वोपदेशतः पूर्व मिथ्यादष्टि जिनं नमः ॥२०७॥
सुखप्रदं जिनं नम इति प्रकृते तत्त्वोपदेशश्रवणात् पूर्व मिथ्यादृष्टिमिति 'विशेषणेन विशेषाकथनात् ।
प्रयुक्तं यौगिकादेवासमर्थमिह तद्यथा । अम्भोधर इवात्यन्तगम्भीरो भरतेश्वरः ॥२०८॥ अम्भोधरशब्दः समुद्रवाचकत्वेनासमर्थः। .
'वन्दन्ति' यह पद व्याकरणकी दृष्टिसे अशुद्ध है, क्योंकि वदि धातु आत्मनेपदी है । अतएव 'वन्दन्ते' पद होना चाहिए, वन्दन्ति नहीं। परुषत्व दोषका स्वरूप और उदाहरण
जो पद्य कर्कश अक्षरोंके योगसे निर्मित हों, उनमें परुषत्व दोष होता है। यथा--उपदेश देनेवाले एवं स्रष्टा ( सर्जक ) द्वारा निरूपित धर्मसे अधिक कष्ट नहीं होता ।।२०५॥
___अविमृष्टविधेयांश दोष-जहाँ विधेय गौण हो जाये वहाँ अविमष्टविधेयांश दोष होता है । जैसे-व्यर्थ प्रतापवाले शत्रुओंका व्यवहार कैसे सहा जा सकता है ॥२०६।।
प्रतापके व्यर्थ होनेसे मुख्य होनेके कारण विधेय अर्थमें उसकी गौणता प्रतीत होती है।
अप्रयोजक दोष-जहाँ विशेषणसे विशेष कुछ न कहा गया हो वहाँ अप्रयोजक दोष होता है । यथा-तत्त्वोपदेशके पूर्व मिथ्यादृष्टि जिनको नमस्कार है ॥२०७॥
यहाँ सुखप्रद जिनको नमस्कार है, इस प्रकरण में तत्त्वोपदेश सुननेके पहले मिथ्यादृष्टि इस विशेषणसे विशेष कुछ भी नहीं कहा गया है ।
असमर्थत्व दोष-जहाँ केवल यौगिकसे ही प्रयुक्त शब्द हों वहाँ असमर्थत्व नामका दोष होता है। यया-चक्रवर्ती भरत अम्भोधरके समान गम्भीर हैं ॥२०८॥
यहां 'अम्भोधर' शब्द मेघ अर्थमें प्रसिद्ध है। अतः समुद्र वाचक अर्थमें असमर्थ है अर्थात् समुद्रका बोध यौगिक अर्थ होने पर ही किसी प्रकार सम्भव है, अन्यथा नहीं।
१. उर्व्यतिर्नोप....क । २. तथा-ख । ३. विशेषेण-ख । Jain Education International
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