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[ ५।१८४
अलंकारचिन्तामणिः साहचर्येण कृष्णः स्यात्सीरिमाधवयोरिति । . 'राजा सज्योत्स्न इत्यस्य शब्दसांनिध्यतो विधौ ॥१८४॥ अभान्मित्रमिति व्यक्त्या सुहृदो निश्चयो मतः। अभान्मित्र इति क्त्या सूर्यमण्डलनिश्चयः ।।१८५।। देवोऽत्र भाति चेत्युक्ते देशादवनिपस्मृतिः । अङ्गजो मीनकेतुः स्यादिति लिङ्गात् स्मरस्मृतिः ॥१८६।। 'विभाति सवितेत्युक्ते रात्रौ चेज्जनको मतः । दिवसे चेद् रविः कालादर्थो निश्चीयते बुधैः ॥१८७॥ एतन्मात्रकुचेत्युक्ते चेष्टयार्थविनिश्चितिः। वस्त्वपि व्याप्तं तस्य व्यञ्जकं सहकृत्वतः ॥१८८।। नीरजैश्च निमीलद्भिर्नाडं गच्छद्भिरण्डजैः । उत्पलैविकसद्भिश्च स्यादस्तंगतसूर्यधीः ॥१८९॥ इति व्यङ्गयादिभणितिः।। गुणानां भेदं सूचयन्तो दोषाः कथ्यन्ते
'सीरिमाधवयोः' इस वाक्यमें सीरिके साहचर्य से माधव कृष्णका द्योतक हुआ।
'सज्योत्स्नः राजा' इस वाक्यमें 'सज्योत्स्नः'के सान्निध्यसे राजा शब्द चन्द्रमाका बोध कराता है ॥१८४॥
'अभान् मित्रम्' इस वाक्यमें व्यक्तिके कारण 'मित्रम्'का सुहृद् अर्थ है तथा 'अभान् मित्रः' ऐसा कहनेपर मित्रका अर्थ सूर्यमण्डल होता है ॥१८५॥
'अत्र देवो भाति' इस वाक्यके कहनेपर देशके कारण देव शब्द राजाका बोधक है। 'अङ्गजः मोनकेतुः स्यात्' इस वाक्यमें पुल्लिग निर्देशके कारण अंगज शब्द कामदेवका बोधक है ॥१८६॥
'विभाति सविता' इस वाक्यके कहनेपर रात्रिमें सविताका अर्थ जनक लिया जायेगा और दिनमें सूर्य अर्थ विद्वान् लोग कालसे अर्थनिर्णय करते हैं ॥१८७॥
‘एतन्मात्रकुचा' इस वाक्यके कहनेपर चेष्टासे अर्थका निश्चय होता है। साथ रहने के कारण वस्तु भी अर्थका व्यंजक मानी गयी है ॥१८८॥
संकुचित होते हुए कमलों, घोसलेमें जाते हुए पक्षियों तथा विकसित होते हुए कुमुदोंसे सूर्यास्तका बोध होता है ॥१८९॥
गुणोंके भेद कहते हुए दोषोंको सूचित किया जाता है ।
२. निधी-ख। ३-४. विभातीत्यारम्य
१. राजा सज्योत्स्न इत्यन्यशब्द-क-ख । भणितिपर्यन्तं खप्रतौ नास्ति ।
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