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पञ्चमः परिच्छेदः
१
संयोगार्थविरोधिते ' प्रकरणं स्यात् विप्रयोगोचिती सामर्थ्यं स्वरसाहचर्यं परशब्दाभ्यर्णताव्यक्तयः । देशो लिङ्गमतोऽपि काल इह चेष्टाद्याः कवीनां मताः शब्दार्थेष्ववच्छिदे स्फुटविशेषस्य स्मृतेर्हेतवः ॥ १७२ ॥ सदम्भोलिर्हरिर्भातोत्यस्त्रसंयोगतः सुरेट् ।
सस्याद्वादे जिनः सेव्य इत्यर्थादार्हती मतिः ।। १८०|| हरिः पद्मविरोधीति विरोधाच्चन्द्रमा मतः । मां वेत्ति देव इत्युक्तेः प्रस्तुतात् सत्यता गतिः ॥ १८१ ॥ अपविर्हरिरित्यस्त्रायोगात् कृष्णः प्रतीयते । औचित्यात् स जिनोऽव्याद् व इति संमुखता गतिः ।। १८२ ॥ कोकिलो रौति चेत्युक्तिसामर्थ्यान्मधुमासधीः । वेदे स्वरेण काव्येऽर्थंधीर्न चेति कुदृष्टयः ॥ १८३॥
-१८३ ]
व्यंजनाका स्वरूप
संयोग इत्यादिके कारण अनेकार्थ वाचक अभिधामूलक शब्द अवाच्य अर्थको अभिव्यक्त करता है, अतएव उसे व्यंजना कहते हैं ।
अर्थविशेष के कारण -
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संयोग, अर्थ विरोधिता, प्रकरण, विप्रयोग, औचित्य, सामर्थ्य, स्वर, साहचर्य, अन्य शब्दसान्निध्य, व्यक्ति, देश, लिंग, काल और कवियोंकी चेष्टा इत्यादि अर्थविशेषके कारण होते हैं ॥ १७९॥
उदाहरण
वज्रयुक्त हरि इस वाक्यमे वज्रके संयोगसे हरि शब्द इन्द्रका वाचक है । स्याद्वाद में वह जिनसेव्य है, यहाँ जिनका अर्थ अर्हन् है ॥ १८० ॥ पद्मविरोधी हरिः, इस वाक्यमें पद्मविरोधी होनेके कारण हरिका अर्थ चन्द्रमा है । 'देवः मां वेत्ति' इस वाक्य में प्रकरणवश 'मां' से सत्यवादिताका बोध होता है ।। १८१ ।।
'अपवि: हरि:' इस वाक्य में अस्त्रयोग न रहनेसे कृष्णकी प्रतीति होती है । 'स जिनः वः अव्यात्' इस वाक्यमें औचित्यके कारण सम्मुखताका बोध होता है ॥१८२॥ 'कोकिलो मध रोति' इस वाक्य में मधुका अर्थ सामर्थ्य के
कारण वसन्त माना जाता है । वेद में जिस प्रकार स्वरके कारण अर्थ बदल जाता है उस प्रकार काव्य में अर्थ परिवर्तन नहीं होता, ऐसा कतिपय कुदृष्टि ( गलत विचारकों ) का मत है ॥१८३॥
१. विरोधित्वे --ख । २. वच्छेदि -- ख । ३. विशेषणस्य - - ख । ४. स्याद्वादि.... ।
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