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पञ्चमः परिच्छेदः
षट्खण्डभूमीवनितां नवोढामालोकमापे निधिपे सुपीठे । तिष्ठत्यशेषैरवनोश्वरैस्तत्कार्यं व्यधायि प्रमदोऽस्य येन || १७४ ॥
-१७५ ]
लब्धराज्याभिषेकस्य भरतेशिनोऽग्रेऽवनिपानां शरणार्थिनां स्वोचितकार्पण्यवचनं प्रणमनादिकं व्यग्यं तत्कार्यं व्यधायीति वाच्यादतिशयाभावेन गुणीभूतव्यंग्यत्वम् ।
चन्द्रस्य निष्फलस्याब्धेर्गाधस्य कुलभूभृताम् । 'नीचैः किं करणेनेति सृष्टश्चक्री विरचिना || १७५ ।।
२७५
चक्रिणश्चन्द्रातिशायि सकलकलापूर्णत्वमम्बुध्यतिशायि गाम्भीर्यं कुलाचलातिशायि समुत्तुङ्गत्वं च व्यज्यते । कुलनिधिजैल निधिकुलाचलनिर्माणसंभ्रमातिशयितश्च क्रिनिर्माणविभवः सर्वसंभवोति व्यज्यते । चित्रं शब्दार्थोभयभेदेन त्रिधा । यथा
'
गुणीभूत या मध्यम काव्यका उदाहरण -
तुरत अपने वश में की हुई छह खण्डवाली वसुधारूपी कामिनीका अवलोकन करते हुए चक्रवर्ती भरतके सुन्दर राजसिंहासन पर बैठ जानेके पश्चात् सम्पूर्ण भूपतियोंने वह वह काम किया जिससे उन्हें विशेष गर्व हुआ || १७४ |
राज्याभिषेकको प्राप्त करनेवाले चक्रवर्ती भरतके आगे राजाओंका शरणागतरूपमें अपने योग्य दीन वचनोंका उच्चारण और प्रणाम इत्यादि करना व्यंग्य है और इस व्यंग्यने ऐसा कार्य किया है जिससे वाक्यार्थको अपेक्षा विशेष चमत्कार न होनेसे गुणीभूत व्यंग्य है, अतएव मध्यम काव्य है ।
ध्वनिकाव्य
कलाविहीन चन्द्रमा समुद्र और कुलपर्वतोंको नीचा करनेके लिए ब्रह्माके द्वारा भरत चक्रवर्ती बनाये गये हैं क्या ? ॥ १७५ ॥
चक्रवर्तीमें चन्द्रमाको अपेक्षा सम्पूर्ण कलाको पूर्णता, समुद्रकी अपेक्षा अत्यधिक गाम्भीर्य और कुलपर्वतोंको अपेक्षा अत्यधिक उत्तुंगता व्यंग्य है । चन्द्रमा, समुद्र और कुलपर्वतकी रचना संभ्रमकी अपेक्षा चक्रवर्ती भरतके निर्माणकी विभूति सभी प्रकारसे अधिक सम्भव है, इस की अभिव्यक्ति होती है ।
शब्दचित्र, अर्थचित्र और शब्दार्थचित्र के भेदोंसे चित्रकाव्य तीन प्रकारका माना गया है ।
१. निजै: - ख । २. पृष्टश्चक्री - क ख । ३. जलधि - ख । ४. अत्र शब्दार्थो -- ख ।
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