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अलंकारचिन्तामणिः
[३२२५न अकस्य दुःखस्य आयः प्राप्तिर्यस्य बोधक्षायिकदानस्वरूपम् उपमाच्छेदकपुण्यम् ।
नमामोहभेदं न मामोहभेदम् । न मामोऽहभेऽदं नमामो ह भेदम् ॥२५॥
नमस्य प्रणामस्य अमस्य भक्तेः ऊहस्य विचारस्य भायाः कान्तेः ईम् संपत्ति ददातीतितम् । मायां राज्यादि संपत्तौ। अमोहभेतम् अज्ञानविशेषहीनम् । मेया परिमित्या अमन्ति स्तुतिमुखरा वदन्तीति मामः स्तोतारः। न जैहन्ति न त्यजन्ति सदा तत्रैव चरन्तीति अहानि भानि नक्षत्राणि यत्र तदहभं गगनं तत्र समवसरणे स्थितं न द्यति धर्म न खण्डयतीति अदम् । ह पादपूरणे। भेदं कर्माद्रिभेदनं जिनं नमाम इति न न किन्तु नमाम एव ।
विद्योतविद्योऽतमसि स्वकाये । कामान्तकामान्तकृदीशिताऽभात् ।
राजीवराजीवतनौ सुराणां नेत्राव्यलेख्याधुपदेशतत्त्वम् ।।२६॥ कामान्तकयोरमस्य दारिद्रयस्य च अन्तकृत् 'विनाशकारी। यस्य तनो भ्रमरसन्निभनेत्रावली पद्मशोभिन्यां पद्मिन्यामिव पुरुहेमाभतनुप्रभासंगात् पद्मपंक्तिरिव हेमवर्णा अभात् । तेन नेत्रा उपदेशकेन जिनेन ।
आप प्रणाम, भक्ति, विचार और कान्तिसम्बन्धी ऐश्वर्यको देनेवाले हैं; राज्यादि लक्ष्मीके प्रति मोहरहित है, समवशरणमें स्थित है; धर्मके स्वरूपके प्रतिपादक हैं और कर्मों को नष्ट करनेवाले हैं। अतएव हम स्तुतिकर्ता आप की स्तुति करते हैं ॥२५॥
नमस्य-प्रणाम, अमस्य-भक्ति, अहस्य-विचारकी, भायाः--कान्ति या सम्पत्तिको देनेवाले, मायाम्-राज्यादि सम्पत्तिके प्रति, अमोहभेदम्-अज्ञान विशेष रहित, मया-सीमित बुद्धिद्वारा, अमन्ति-स्तुति करते हैं। मामः-स्तुति करनेवाले; न जहन्ति-नहीं छोड़ते हैं, अहमम्-आकाशमें स्थित समवशरणमें, अदम्-धर्मोपदेशक, जिनको, नमाम-नमस्कार करते हैं।
जो जिनेन्द्र अज्ञानरहित अपने शरीरमें प्रकाशमान केवलज्ञानकी आभासे युक्त हैं । काम, यम-मृत्यु और दारिद्रयका विनाश करनेवाले हैं और जिन्होंने सामर्थ्यवान् होकर शोभा प्राप्त की है। जिन जिनेन्द्र भगवान्के शरीररूप कमलपर देवोंकी नेत्ररूपी भ्रमरपंक्ति सुशोभित होती है-अर्थात् देवसमूह भगवान् जिनेन्द्रको उत्सुकतापूर्वक देखता है, उन मोक्षमार्गके नेता भगवान्ने वस्तुस्वरूपका उपदेश दिया है ॥२६॥
अन्तकः-यम-मृत्यु; अमस्य-दारिद्रय का, अन्तकृत्-विनाशकारी, भ्रमरके समान नेत्रावली, पद्म-कमलके समान पुरुदेवको स्वर्णशरीर कान्ति । १. नमा इत्यस्य स्थाने-ख प्रती नयो पाठः । २. माया-ख। ३. जहति इति-ख । ४. खारितत्त्वम्-ख । ५. खप्रती चकारो नास्ति । ६. विनाशकारि-ख ।
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