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-२५०] चतुर्थः परिच्छेदः
१९३ चक्रेशिन् राजसंदेशहरा न वयमीश्वर । त्रिलोकीबान्धवे नारिस्त्वयि कश्चिदिति कथ्यते ॥२४८॥
रिपुनृपसंधिविग्रहकारिवचोहराणामुक्तौ न वयं संदेशहरा इति वस्तुनिषेधः । स च संदेशः कलहोचितकपटवचनपरिहारेण सत्यवचःपर्यवसानः।
__ भोः सर्वलोकरक्षक त्वया ते राजानः 'शत्रवो नावलोकनीयाः। किंतु मे भृत्या इति पालनीया इत्यादिविशेष सूचयति ।
मां पाहि जिनपेत्युक्तिर्जाघटीति कथं त्वयि । स्वस्य किंचिदनुद्दिश्य त्रिलोकी रक्षके पुरी ।।२४९।।
अत्र मां पाहीत्युक्ते कथननिषेधाभासान्नियमेन रत्नत्रयद्रविणवितरणेन परिपालनीयोऽहमिति विशेष आमिप्यते।।
पृच्छामि किंचिदीशान तवाग्रे पुरुदेव भोः।
किं पृच्छ्यतेऽथवा विश्ववस्त विद्योतभास्करः ॥२५०॥ प्रथमाक्षेपालंकारका उदाहरण
हे चक्रवतिन् ! हे प्रभो ! हम लोग किसी राजाके सन्देशको नहीं लाये हैं । तीनों लोकके बन्धुस्वरूप तुम्हारे विषयमें कोई शत्रु नहीं है, यही कह रहे हैं ॥२४८॥
शत्रु राजाके सन्धि या विग्रहकारी दूतोंके वचनोंमें हम सन्देश पहुँचानेवाले नहीं हैं, इस प्रकार यहाँ वस्तुका निषेध है और वह सन्देश झगड़ा योग्य कपट वचनके निषेधसे अन्तमें सत्यवचनके रूपमें परिणत हो जाता है ।
हे सर्वलोक रक्षक ! तुम्हें राजाओंको शत्रुरूपमें नहीं देखना चाहिए; किन्तु तुमको समझना चाहिए कि वे तुम्हारे सेवक हैं, अतः तुम्हें उनका पालन करना है। इस प्रकार विशेषताका आक्षेप होता है । द्वितीयाक्षेपालंकार
हे जिनेश्वर, निःस्वार्थभावसे तीनों लोकोंकी रक्षा करनेवाले तझ पुरुदेवमें मेरी रक्षा करो यह कथन किस प्रकार घट सकता है ॥२४९।।
__यहां मेरी रक्षा करो ऐसा कहनेपर कथनके निषेधका आभास होता है। अतएव रत्नत्रयरूपी धनके वितरण करनेसे आपके द्वारा मैं पालन करने योग्य हूँ, इस प्रकारको विशेषताका आक्षेप होता है। तृतीयाक्षेपालंकारका उदाहरण
हे प्रभो पुरुदेव ! आपके समक्ष कुछ पूछता हूँ अथवा हे संसारको समस्त वस्तुओंको प्रकाशित करनेवाले सूर्य, सर्वज्ञ होनेके कारण आपसे क्या पूछा जाय ॥२०॥
१. शत्रव इति नावलोकनीयाः क-ख। ४. विद्योतिभास्करः-क।
२. आक्षेप्यते ख-। ३. पृच्छते -ख ।
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