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चतुर्थः परिच्छेदः यत्रोत्तरोत्तरं पूर्वं पूर्व प्रति विशेषणम् । क्रमेण कथ्यते त्वेकावल्यलंकार इष्यते ॥३२७।। 'पुरुदेवपुरी चारुश्रावकव्रजशोभिता । श्रावकाः स्थितधर्माणो धर्मो यत्र त्रयात्मकः ॥३२८।। इदमुदाहरणं स्थापनेन अपोहेनापि स्याद् यथान सा सभा कवित्वादिगुणिविद्वज्जनोज्झिता। विद्वज्जना न ते श्रद्धासम्यग्ज्ञानविवर्जिताः ॥३२९।। यत्रोत्तरोत्तरं प्रत्युत्कृष्टत्वावहता भवेत् । पूर्वपूर्वस्य वै चैतन्मालादीपकमिष्यते ॥३३०॥ आदिब्रह्मापसद्बोधं बोधः प्रापार्थसंचयम् । पदार्थनिवहोऽप्याप लोकालोकस्वरूपताम् ॥३३१॥
एकावली अलंकारका स्वरूप
जहां पूर्व-पूर्व वणित वस्तुके लिए उत्तरोत्तर वर्णित वस्तुका विशेषणरूपसे क्रमशः विधान किया जाता है, वहाँ एकावलो अलंकार होता है ॥३२॥ उदाहरण
पुरु भगवान्की नगरी-अयोध्या श्रेष्ठ श्रावक समूहसे सुशोभित थी, श्रावक धर्मात्मा थे और धर्म रत्नत्रयरूप स्थिर था ॥३२८॥
यह उदाहरण स्थापनाविधिका है। अपोह अर्थात्-निषेधका उदाहण
कवित्वादि गुणशाली विद्वानोंसे रहित वह सभा नहीं है, श्रद्धा और सम्यग्ज्ञानसे रहित वे विद्वान् भी नहीं हैं ॥३२९॥ मालादीपकालंकारका स्वरूप
जहाँ उत्तरोत्तर वस्तुके प्रति पूर्व-पूर्व वणित वस्तु की अपेक्षा उत्कृष्टता प्रतीत हो वहाँ निश्चय ही मालादीपक अलंकार होता है ॥३३०॥ उदाहरण
आदिब्रह्माने सद्बोधको प्राप्त किया, सद्बोधने अर्थसंचयको प्राप्त किया। पदार्थसमूह भी लोकालोक स्वरूपताको प्राप्त हुआ ॥३३१॥
१. पूर्वदेवपुरीत्यस्य पूर्व-खप्रतो पूर्व पूर्व प्रति यत्र यत्रोत्तरेषां विशेषणत्वस्यकावलो । २. धर्मो रत्नत्रयात्मकः-क-ख ।
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