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अलंकारचिन्तामणिः
[ ५।१३७वाचोयुक्तिविविक्तवस्तुविसरो दुष्कर्मनिमूलंनो जोयात्सूरिसुभाषिताजितमहः सोऽयं जिनेन्द्रप्रभुः ॥१३७॥ उक्तरीत्युभयात्मा तु पाञ्चालीति मता यथा । न स्नेहाच्छरणं प्रयान्ति भगवन पादद्वयं ते प्रजा हेतुस्तत्र विचित्रदुःखनिचयः संसारघोरार्णवः । अत्यन्तस्फुरदुग्ररश्मिनिकरव्याकोर्णभूमण्डलो ग्रैष्मः कारयतीन्दुपादसलिलच्छायानुरागं रविः ।।१३८॥
प्रसादादिसर्वगुणपूर्णा 'असमस्ता द्वित्रिपदसमस्ता वा वर्गद्वितीयाक्षरप्रचुरा स्वल्पघोषाक्षरा वैदर्भी। समस्तात्युद्भटपदा महाप्राणाक्षरा कान्त्योजोगणा गौडो। समस्तपञ्चषपदा ओजःकान्तिसौकुमार्यमार्यान्विता पाञ्चाली। सकलरीतिसंमिश्रा 'मृदुसमासा बहुयुक्ताक्षररहिता स्वल्पघोषाक्षरा लाटी।
होता है अर्थात् जिसके चरण नमस्कार करनेवाले देव-दानवाधिपतियोंके मुकुटोंमें लगी हुई मणियोंसे निरन्तर प्रकाशमान रहते हैं तथा वचनयुक्ति के द्वारा जो पदार्थों के विस्तारको प्रकट करनेवाला है अर्थात् जिसकी दिव्य ध्वनिसे पदार्थों का निरूपण हुआ है और जिसने दुष्कर्मोकी जड़को उत्पाटित कर दिया है अर्थात् जिसने कर्मकालिमाको नष्ट कर दिया है तथा जिसने आचार्योके द्वारा स्तुति किये जानेसे महत्त्वको प्राप्त किया है वह जिनेन्द्र महाप्रभु सर्वत्र विजयी हों ॥१३७॥ पांचाली रीति और उसका उदाहरण
पूर्वोक्त दोनों रीतियोंके सम्मिश्रणको पांचाली रीति कहते हैं । यथा-हे भगवन ! स्नेहके कारण मनुष्य आपके चरणोंकी शरणमें नहीं आते, किन्तु शरणमें आनेका विचित्र हेतु है कि सारे संसारके प्राणो भयंकर सांसारिक दुःखोंसे संतप्त हैं; अतः वे उस दुःखको निवृत्तिके हेतु आपके चरणोंकी शरण में आते हैं। अत्यन्त चमकते हुए तेज किरणसमूहसे व्याप्त भूमण्डलवाला ग्रीष्मकालिक सूर्य-चन्द्रमाकी किरणोंसे शीतल जलकी छाया में प्रीति करा देता है ॥१३८॥
प्रसाद इत्यादि सभी गुणोंसे युक्त, असमस्त अथवा दो या तीन पदोंके समाससे युक्त वर्गों के द्वितीय अक्षरसे पूर्ण अति स्वल्प घोष वर्णवाली वैदर्भी रीति होती है । समस्त तथा अत्यन्त उत्कट पदवाली महाप्राण अक्षरोंसे युक्त कान्ति और ओजगुणसे मण्डित गौडी रोति होती है। समस्त पांच-छह पदवाली ओज, कान्ति, सौकुमार्य, माधुर्य गुणयुक्त पांचाली रीति होती है। सम्पूर्ण रीतियोंसे मिश्रित कोमल समाससे युक्त
२. मृदुगसमासा बहुयुक्ताक्षररहिता स्वल्पघोषा
१. असमस्तादिपदसमस्ता वा-ख। लाटी-ख ।
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