________________
२७० अलंकारचिन्तामणिः
[५।१५८श्लाघ्यमानमहागुण इत्यर्थशक्तिमूलत्वमित्यु भयक्तिमूलः पुरुरव्योरुपमालंकारध्वनिः।
रसावस्थानसूचिन्यो वृत्तयो रचनाश्रयाः। 'कैशिको चारभट्यन्या सात्वती भारती परा ॥१५८।।
वृत्तयस्तु चतस्रो रचनाश्रितत्वेन रसावस्थितिसूचिताः । रसरहित - वर्णनरचनाया दोषत्वेन प्रसिद्ध रचनाया अपि रसव्यजकत्वम् ।
द्वावत्यन्तसुकोमलौ च करुणः शृङ्गार इत्याह्वयौ द्वौ वीभत्सरसोऽपि रौद्र इति तत्त्वत्युद्धतौ भाषितौ। ईषत्प्रौढरसौ भयानकरसो वोरोऽति संभाषितौ स्युः किंचित्सुकुमारभावनियता हास्यश्च शान्ताद्भुतौ ॥१५९।। अत्यन्तमृदुसंदर्भेः शृङ्गारकरुणौ रसौ।। वयेते यत्र धीमद्भिः कौशिकी वृत्तिरिष्यते ॥१६०।।
'सर्वश्लाघ्यमानमहागुण' में अर्थशक्तिमूलकता है । अतएव उभयशक्तिमूलकका उदाहरण है। यहां पुरु और रविमें उपमा अलंकारकी ध्वनि है । वृत्तिका स्वरूप और उसके भेद
रसोंकी स्थितिका बोध करानेवाली तथा रचनाओंमें विद्यमान वृत्तियाँ होतो है। इनके चार भेद है-(१) कोशिकी, (२) आरभटी, ( ३ ) सात्वती और (४) भारती ॥१५८॥
रचनामें आश्रित होनेके कारण रसकी अवस्थितिसे सूचित वृत्तियां चार होती हैं । रसहीन वर्णनवाली रचनाको दोष माना गया है, अतएव रसकी अभिव्यंजिका रचना होती है, यह सिद्ध हुआ। रसोंके स्वभाव
करुण और शृंगार ये दोनों रस अत्यन्त कोमल हैं। वीभत्स और रोद्र ये दोनों अत्यन्त उद्धत हैं। भयानक और वीर कुछ प्रौढ़ स्वभाववाले कहे गये हैं तथा हास्य, शान्त और अद्भुत रस सुकुमार भाववाले होते हैं ॥१५९।। कौशिकी वृत्तिका स्वरूप
जिस रचना विशेषमें बुद्धिमानों के द्वारा अत्यन्त सुकोमल सन्दर्भोसे शृंगार और करुण रसका वर्णन किया जाता है वहां कौशिकी वृत्ति होतो है ।।१६०॥
१. कौशिकी -क। २. सूचिकाः-ख । ३. रसरहितवर्णरचनाया -ख । ४. कैशिको -क-ख ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org