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२६८ अलंकारचिन्तामणिः
[५११५४अध्यवसायो विषयनिगरणेनाभेदप्रतीतिः । साध्यवसायलक्षणा यथाइक्ष्वाकुकुलवा शिवृद्धये शिशिरद्युतिः । अभूदेष प्रजातोषकरणक्षयसत्कलः।।१५४।।
भरतेश इन्दुत्वेनाध्यवसोयते । इक्ष्वाकुकूलवारीशीत्यारोपश्च । अनुगतेषु वस्तुषु वाक्यार्थोपस्काराय भिन्नार्थगोचरः शब्दव्यापारो व्यञ्जनावृत्तिः। सा त्रिधा।
शब्दशक्तिमूला, अर्थशक्तिमूला, उभयशक्तिमूलेति । क्रमेण यथावाहिन्यो व्याप्तमेदिन्यश्चक्रिणः कृतसंभमाः । कबन्धापूर्णमातेनुः प्रत्यर्थिबलवारिधिम् ॥१५५।।
अत्र अर्थप्रकरणादिना वाहिनीकबन्धशब्दयोररिसेनायां छिन्नमस्तक*क्रियायुक्तशरीरपूर्णत्ववाचकतया नियमेऽपि शब्दशक्तिमूलेति निम्नगाजलं प्रतीयत इति व्यञ्जनावृत्तिः।
साध्यवसाया लक्षणाका स्वरूप और उदाहरण
अध्यवसायः = विषयोके द्वारा विषयको कुक्षिस्थ कर लेनेपर अभेदरूपसे जो प्रतीति होती है उसे साध्यवसाया लक्षणा कहते हैं । यथा
प्रजाको सन्तुष्ट करने में समर्थ सुन्दर कलावाला यह चन्द्रमा इक्ष्वाकुकुलरूपी समुद्रको वृद्धि के लिए उत्पन्न हुआ है ॥१५४॥
___ यहां भरतेशका चन्द्ररूपसे अध्यवसाय किया गया है और इक्ष्वाकुकुलमें समुद्रका आरोप हुआ है। व्यंजनावृत्तिका स्वरूप और उसके भेद
___अनुगत पदार्थोंमें वाक्यार्थको आस्वादनोय बनानेके लिए अन्यार्थके प्रत्यायक शब्दव्यापारको व्यंजनावृत्ति कहते हैं। यह तीन प्रकारको होती है--(१) शब्दशक्तिमूला, (२) अर्थशक्तिमूला और (३) उभयशक्तिमूला । यथा
शीघ्रता करनेवाली तथा पृथ्वीपर व्याप्त चक्रवर्ती भरतकी सेनाने शत्रुके सेनारूपी समुद्रको कबन्धोंसे पूर्ण कर दिया अर्थात् कबन्ध-मस्तकरहित धड़से सेनाको व्याप्त कर दिया ॥१५५॥
यहाँ अर्थके प्रसंग इत्यादिसे सेना और कबन्ध शब्दोंका शत्रुसेनामें कटे हुए मस्तक क्रियासे युक्त शरीरको पूर्णता, वाचकताके कारण नियमबद्ध है, अतः शब्दशक्तिमूला व्यंजनावृत्ति है। यहां इस वृत्तिसे नदीजलको भी प्रतीति होती है।
१. इक्ष्वाकुकुलवाराशि-ख । अन्यत्रापि वार्राशि इत्यस्य स्थाने वाराशि इति-ख । २. क्रिया-इत्यस्यानन्तरम् -ख ।
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