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-१५७] पञ्चमः परिच्छेदः
२६९ अभिधा तु प्रकृतार्थपर्यवसिता अप्रकृतार्थ 'ज्ञापयितुं न शक्नोति । अप्रकृतार्थस्यापि वाक्यार्थे शोभायै कविना विवक्षणोयत्वात् । अर्थतस्तदप्रतिपत्तेः शब्दस्यैव व्यापरो व्यञ्जनाख्यः ।
श्रीमत्समन्तभद्राख्ये महावादिनि चागते । कुवादिनोऽलिखन् भूमिमगुष्ठैरानताननाः ॥१५६।। कुवादिनो विषण्णा इत्यर्थशक्त्या व्यज्यते ।
अर्थशक्तिमूलव्यञ्जनायामनुमानशंका न कर्तव्या। व्यङ्ग्यव्यञ्जकयोरविनाभावित्वासंभवात् । भूलेखननतत्वादिकार्याणां विषाद एव कारणमिति नियमाभावात् ।
अनन्तद्योतनसर्वलोकभासकविग्रहः । आदिब्रह्मजिनः सर्वश्लाघ्यमानमहागुणः ।।१५७।।।
'अनन्तं सुरवर्त्म खमिति अनन्तद्योतनो रविः। पक्षे अनन्तबोध इति व्याख्यानादनन्तद्योतन इत्यत्र शब्दशक्तिमूलत्वम् । सर्वलोकभासकविग्रहः सर्व
प्राकरणिक अर्थमें पर्यवसित होनेवाली अभिधावृत्ति अप्राकरणिक अर्थका बोध करानेमें समर्थ नहीं हो सकती है। वाक्यार्थमें शोभाके लिए अप्राकरणिक भी कविके द्वारा कथनीय है । अर्थसे उसका बोध नहीं होनेके कारण व्यंजना नामक व्यापार शब्दका ही माना गया है।
बहुत बड़े शास्त्रार्थी श्रीमान् समन्तभद्रके आ जानेपर मस्तक झुकाये हुए कुवादो असमर्थ प्रतिद्वन्द्वी लोग अँगूठोंसे पृथ्वीको खोदने लगे ॥१५६।।
यहाँ कुत्सित शास्त्रार्थी लोग उदास हो गये, यह अर्थशक्तिसे अभिव्यक्त होता है।
___ अर्थशक्तिमूलक व्यंजनामें अनुमानको शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि व्यंग्य-व्यंजकभावमें अविनाभाव सर्वथा असम्भव है। जो जिसके बिना न रह सके उसे अविनाभाव कहते हैं। भूलेखन और नताननत्व इत्यादि कार्योंमें विषाद ही कारण है, ऐसा निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता।
__ समस्त संसारके प्रकाशक देहवाले सभोसे प्रशंसनीय अत्यधिक गुणगणशाली आदिब्रह्म जिनेश्वर पुरुदेव सम्पूर्ण आकाश को प्रकाशित करनेवाले सूर्यके समान असीम बोधवाले हैं ॥१५७॥
___ अनन्त= देव मार्ग आकाश। द्योतनः = प्रकाशक सूर्य, पुरुपक्षमें असीम बोध । व्याख्यानसे अनन्त द्योतनमें शब्द शक्तिमूलता है। 'सर्वलोकभासक विग्रह' तथा
१. ज्ञापयितुं न शक्नोति विद्यते । मध्यस्य पदानि न सन्ति । २. तदप्रतीतेः-ख । ३. भूलेखनत्वादि-ख । ४. व्याख्यादनन्त-ख ।
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