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-१६४] पञ्चमः परिच्छेदः
२७१ वृषभनृपतिकायः कान्तसूरांशुहारी मदूललिततनूनां लोचनैः कामिनीनाम् । स्थलमृदुलसरोजैः सारगन्धं किरद्भिः सुरधरणिधरो वा संबभौ हेमकान्तिः ।।१६।। वर्येते रौद्रवीभत्सो रसो यत्र कवोश्वरैः । अतिप्रोढेस्तु संदर्भेर्भवेदारभटो यथा ॥१६२॥ स्फूर्जच्छात्रवविच्छिदारुरनलज्वालौघमावर्षता स्फूर्जत्खड्गविघट्टनोद्भवलसत्स्फारस्फुलिङ्गवजैः। गर्जन्मेघनिभेभरूढवपुषा श्रीमज्जयेन द्विषश्च्छिन्नाङ्गाः स्रवदसुजालकलिताः भूताद्यजीर्ण व्यधुः ।।१६३॥ ईषत्प्रौढौ निरूप्येते यत्र वीरभयानको।
अनतिप्रौढसंदर्भात्सात्वतोवृत्तिरुच्यते ॥१६४।। उदाहरण--
उत्तम सुगन्धिको विकीर्ण करनेवाली कोमल गुलाबके फूलोंके समान मृदुल एवं सुन्दर शरीरवालो युवतियोंके लोचनोंसे आदरपूर्वक देखा जाता हआ श्रेष्ठ वृषभके समान पुरुदेव महाराज सुन्दर सूर्यको किरणोंको हरण करनेवाले सुवर्ण के समान कान्तिवाले देव या शेषनागके समान सुशोभित हुए ॥१६१।। आरभटी वृत्तिका स्वरूप
जिस रचना-विशेष में श्रेष्ठ कवियोंके द्वारा अत्यन्त प्रौढ़ सन्दर्भोसे रौद्र और वीभत्स रसोंका वर्णन किया जाता है, वहाँ आरभटी वृत्ति मानी गयो है ॥१६२॥ यथा
चमकते हुए खम्भोंके परस्पर टकरानेसे उत्पन्न अत्यन्त तेजस्वी अग्निकणोंके समूहोंसे उछलते हुए शत्रुओंके रुधिरसे वृद्धिको प्राप्त अग्निज्वाला समूहको निरन्तर वर्षा करते हुए गर्जनसहित मेघके समान कान्तिवाले श्रीमान् जयकुमार सुशोभित थे। इनके द्वारा काटे हुए अंगवाले तथा टपकते हुए रुधिरसमूहको धारण करनेवाले शत्रुओंने कच्चे मांस खानेवाले भूत-पिशाच इत्यादिकोंको अजीर्ण नामक व्याधिसे युक्त कर दिया ॥१६३॥ सात्वती वृत्तिका स्वरूप
जिस रचना-विशेष में कुछ प्रौढ़ वीर और भयानक रस साधारण प्रौढ़ सन्दर्भसे वणित होते हैं, वहां सात्वती वृत्ति मानी जाती है ॥१६४॥
१. द्विपाः -ख । २. प्रेताद्य-ख ।
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