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-१४७ ] पञ्चमः परिच्छेदः
२६३ साहायकं श्रिता शोभा आत्मोत्कर्षावहाः 'स्वाभा इव रीतयः शोर्यादय इव श्लेषादयो गुणाः। शय्येव पदानुगुण्यविश्रान्तिः शय्या। अर्थनिरूपणात्पूर्व वचनं विचार्यते । तच्च ।।
शब्दः पदं च वाक्यं च खण्डवाक्यं तथा पुनः । महावाक्यमिति प्रोक्तं वचनं काव्यकोविदः ॥१४५॥ विभक्त्युत्पत्तियोग्यो यः शास्त्रीयः शब्द उच्यते । रूढयोगिकमिश्रेभ्यो भेदेभ्यः स त्रिधा पुनः ।।१४६।।
शास्त्रीय इति शङ्खकाहलादिध्वनिनिवृत्तिः। एतावता लिङ्गधातु स्वरूपप्रकृतिः शब्दः । रूढो यथा
निर्योगास्फुटयोगाभ्यां योगाभासात् त्रिधाऽदिमः। ते च 'भूवादिवृक्षादिमण्डपाद्याः क्रमान्मताः ।।१४७।।
प्रकृतिप्रत्ययविभागो योग इष्यते । यस्मादर्थे शब्दो युज्यते स योग इति व्युत्पत्तेः । निर्योगो भूवादिः । न हि सत्तायां कयाचिद् व्युत्पत्त्या भूधातुः प्रवर्तते ।
सहायकोंमें आश्रित शोभा आत्माके उत्कर्षको बढ़ानेवाली अपनी आभाके समान गतियां हैं । शौर्य आदिके समान श्लेष इत्यादि गुण हैं । शय्याके समान पदोंके अनुरूप विश्रान्ति देनेवाली शय्या है । अर्थ-निरूपणके पूर्व वचनका विचार करते हैं :- काव्यशास्त्रके विद्वानोंने शब्द, पद, वाक्य, खण्डवाक्य और महावाक्य इन सबको वचन कहा है ॥१४५॥
__जो सु, ओ इत्यादि विभक्तिकी उत्पत्ति के योग्य हो उसे शास्त्रके अनुसार शब्द कहते हैं। शब्दके तीन भेद हैं-(१) रूढ़, (२) यौगिक और (३) योगरूढ़ ॥१४६॥
शास्त्रीयपदके कथनसे शंख, काहल इत्यादिकी ध्वनिको शब्द नहीं कह सकते हैं । इससे यह स्पष्ट है कि लिंग, धातुस्वरूप जो प्रकृति है उसे शब्द कहते हैं।
रूढ़-पहला अर्थात् रूढ़ शब्द निर्योग, अस्फुट योग और योगाभासके भेदसे तोन प्रकारका होता है--(१) जिसमें यौगिक अर्थको प्रतीति न हो, जैसे 'भूः' इत्यादि, (२) जिसमें यौगिक अर्थको स्पष्ट प्रतीति न हो, जैसे वृक्ष इत्यादि (३) जिसमें वस्तुतः यौगिक शब्दकी प्रतीति न होनेपर भी यौगिक शब्दके समान प्रतीति हो, जैसे मण्डप इत्यादि ॥१४७॥
प्रकृति प्रत्यय विभागको योग कहते हैं। जिससे अर्थमें शब्दका योग किया जाता है उसे योग कहते हैं, ऐसी व्युत्पत्ति है। योगहीन 'भूः', 'वा' इत्यादि हैं । किसी
१. स्वभावा इव-ख । २. महामात्यमिति-ख । ३. शास्ति यः-ख । ४. विधामतः-ख । ५. स्वरूपा प्रकृतिः-क-ख । ६. भूवाटवृक्षादि--ख । ७. यस्मादर्थेन शब्दो-ख ।
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