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पञ्चमः परिच्छेदः
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इति रीतिचतुष्टयमिच्छन्ति केचित् तदपि ज्ञेयम् । अथ शय्या पाको कथ्येते । पदानुगुण्यरूपा या मैत्री शय्येति कथ्यते । 'पाकोऽर्थानां गभीरत्वं द्राक्षापाकोऽपरो द्विधा ॥ १३९ ॥ प्रावृट्काले सविद्युत्प्रपतितसलिले 'वृक्षमूलाधिवासा हेमन्ते रात्रिमध्ये प्रतिविगतभयाः काष्ठवत्यक्तदेहाः । ग्रीष्मे सूर्यांशुतप्ता गिरिशिखरगतस्थानकूटान्तरस्थास्ते मे धर्म प्रदद्युर्मुनिगणवृषभा मोक्षनिश्रेणिभूताः ॥ १४०॥ अत्र बन्धस्य पदविनिमयासहत्वेन पदान्योन्य मैत्रीरूपा शय्या | द्राक्षापाकः स भण्येत बाह्याभ्यन्तः स्फुरद्रसः । स्यान्नारिकेलपाकोऽयमन्तगूंढरसो यथा ॥ १४१ ॥
रहस्सु वस्त्राहरणे प्रवृत्ताः सहासगर्जाः क्षितिपालवध्वाः । सको कंदर्पधनुःप्रमुक्त-शरौघहुं काररवा इवाभुः ॥ १४२ ॥
अधिक संयुक्त अक्षरोंसे रहित अत्यन्त स्वल्प घोष अक्षरवाली लाटी रीति होती है । इस प्रकार अन्य आचार्योंके मतसे चार रीतियाँ भी मानी गयी हैं । शय्या और पाक
पदोंके अनुगुण रूपवाली मैत्रीको शय्या कहते हैं और अर्थोंकी गम्भीरताको पाक कहते हैं । पाक दो प्रकारका होता है - ( १ ) द्राक्षापाक और ( २ ) नारिकेलपाक ॥१३९॥
जो बिजली के साथ गिरते हुए जलवाले वर्षा ऋतुके समय वृक्षोंके नीचे निवास करते हैं अर्थात् वर्षा ऋतुमें वृक्षोंके नीचे रहने से वर्षा रुक जानेपर भी वर्षाका जल शरीरपर गिरता रहता है । हेमन्त ऋतुकी मध्यरात्रियों में निर्भय होकर काष्ठवत् शरीरको दृढ़ किये हुए खुले आकाशमें जो तप करते हैं और ग्रीष्म ऋतुमें जो सूर्यकी किरणोंसे तपे हुए पर्वतोंके शिखरों पर निवास करते हैं ऐसे मोक्षकी सीढ़ीके सदृश मुनिगण हमें धर्म प्रदान करें ||१४० ॥
इस रचना में - पद्य में पद-परिवर्तन नहीं सह सकने के कारण पदों में परस्पर मैत्री होनेसे शय्या है ।
द्राक्षापाक और नारिकेलपाकका स्वरूप
बाहर और भीतर दृश्यमान रसवाले पाकको द्राक्षापाक और केवल भीतर छिपे हुए रसवाले पाकको नारिकेल पाक कहते हैं || १४१ ॥ यथा —– रानियों के एकान्त में वस्त्रों के हटाने में प्रवृत्त हास्य के साथ गर्जन करनेवाले क्रोधयुक्त कामदेव के धनुषसे छोड़े हुए बाणसमूहके हुंकारके समान सुशोभित हुए || १४२ ॥
१. शय्यापाती - ख । २. पातो - ख । ३. वृक्षमूलेऽधिवासा - ख ।
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