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-११३] पञ्चमः परिच्छेदः
२५३ श्रेयोमार्गानभिज्ञानिह भवगहने जाज्वलदुःखदावस्कन्धे चंक्रम्यमाणानतिचकितमिमानुद्धरेयं वराकान् । इत्यारोहत्परानुग्रहरसविलसद्भावनोपात्तपुण्यप्रक्रान्तैरेव वाक्यैः शिवपथेमुचितान् शास्ति योऽर्हत् स नोऽन्यात् ॥१११॥ यत्तेजोऽनलेदग्धनाकपतिगाद्यब्धिस्थदेवाधिपा यत्पादद्युतिवारिसिक्तशमिता मेघस्वराख्यां गतः । तद्दत्तां मम जितेन पतिता भूमौ कुलक्ष्माभृत*श्चक्रेट्संनिभमेरुमात्ररहिताः श्लाघान्यघातेन का ॥११२॥ आलम्बस्तत्त्रये पात्र दीनवैरित्रयं क्रमात् । उद्दीपो दानसुस्तोत्रदानोक्त्याजिस्वनादयः ॥११३॥
अत्यधिक प्रज्वलित हुए दुःख रूपी वनाग्नि समूहवाले इस संसाररूपी घोर वनमें परिभ्रमण करनेवाले, कल्याणमार्गसे च्युत, दुःखियोंका अत्यन्त आश्चर्य पूर्वक कैसे उद्धार करूं ? इस प्रकारके मस्तिष्कमें आनेवाले महान् अनुग्रह रससे संयुक्त भावना द्वारा पुण्यसे प्राप्त वाक्यावलिसे ही भव्यजीवोंको मुक्ति मार्गका जो निर्देश करते हैं वे भगवान् अर्हन हम लोगोंको रक्षा करें ॥१११॥
जिसके तेजरूपी अग्निसे प्रज्वलित स्वर्गके अधिपति रूपी समुद्र में देवताओंके अधिपतियोंने निवास किया तथा जिसके चरणके कान्तिरूपी जलसिंचनसे शान्त मेघेश्वर इस नामको प्राप्त किया। चक्रवर्तीके समान केवल मेघ पर्वतको छोड़कर अन्य कुलाचल गर्जनके साथ जमोनपर गिर पड़ें, उन्हें खण्डित कीजिए। दूसरोंके वधको क्या प्रशंसा को जाये ॥११२॥
वीररसके आलम्बन और उद्दोपन विमाव
उक्त तीनों प्रकारके वीररसोंमें क्रमशः दान देने योग्य व्यक्ति, दया करने योग्य दोन और शत्रु ये तीन आलम्बन विभाव हैं। दानकी प्रशंसा, दीनकी उक्ति और युद्धके शब्द इत्यादि उद्दीपन विभाव होते हैं ॥११३॥
वीररसके अनुमाव
प्रसन्नता, अस्त्र इत्यादिका ग्रहण करना तथा इसके अतिरिक्त रोमांच आदिका होना वीररसके अनुभाव हैं।
१. शिवपदमुचिता नास्ति योऽर्हन् स नोऽव्यात्-ख । २. दुग्धनाकपदिगाद्यन्धि-ख ।
३. -३चक्रोट् । ४. दिन-ख । ५. दीनोक्त्या-क-ख ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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