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पञ्चमः परिच्छेदः
शमः पुष्टो विभावाद्यैरेव शान्तरसो यथा ।
पुत्रं पोत्रं कलत्रं श्रियमपि निखिलां प्राणिनां भ्रान्तिहेतु मुक्त्वा लोलायमानं कपिवदपि मनःश्रोपुरोरङ्घ्रियुग्मे । रुध्वार्हन्त्यं सुखाढ्यं केलुषततिहरं भावयन्पापशत्रु जेतु' कोणे वसामि क्वचिदुरुशयतः किं परैः पापिसंगैः ॥ १२६॥ आलम्बनविभावाः स्युरार्हन्त्यपदवीमुखाः । उद्दोपनास्त्वनेकान्तशास्त्रिसंभाषणादयः || १२७॥ अनुभावोऽत्र भाष्येत सर्वत्र समदर्शिता । ३ निष्पन्दतादयः सूक्ताः सात्त्विका मुनिसत्तमैः ॥ १२८॥ निर्वेदो धृतिरुद्बोधस्तकं: स्मृतिमती तथा ।
इति संचारिणो भावाः स्युः शान्तरसनामके ॥ १२९ ॥
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शान्तरस - विभाव, अनुभाव आदिसे परिपुष्ट 'राम' नामक स्थायी भाव ही शान्तरस के रूप में परिणत हो जाता है । यथा
प्राणियों को इस संसार में भ्रान्त करनेके कारणस्वरूप पुत्र, पौत्र, भार्या, सम्पूर्ण - सम्पत्तिको भी छोड़कर वानरतुल्य चञ्चल मनको आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेवके दोनों चरणों में अवरुद्ध करता हूँ और सुखशान्तिसे परिपूर्ण पाप समूहको नष्ट करनेवाले आगम शास्त्रको उपादेय मानता हूँ तथा कर्मरूपी शत्रुओंको जीतने के लिए शान्ति परिपूर्ण किसी एकान्त स्थानमें निवास करता हूँ । यतः शत्रुस्वरूप पापियोंकी संगति से क्या लाभ है ? ॥१२६॥
शान्तरसके आलम्बन और उद्दीपन विभाव
जिनेन्द्र भगवान् के चरण आदि शान्तरसके आलम्बन विभाव तथा अनेकान्त शास्त्र के अध्ययन करनेवालोंके साथ वार्तालाप करना आदि उद्दीपन विभाव है ॥ १२७॥ शान्तरस के अनुमाव ओर सात्विक भाव -
इस शान्तरस में सर्वत्र समदर्शिता अनुभाव है और श्रेष्ठ मुनियोंने इसमें निष्पन्दता आदिको सात्त्विक भाव कहा है ॥ १२८॥
शान्तरस के व्यभिचारी भाव
शान्तरसके नायक में निर्वेद, धृति, उद्बोध, तर्क, स्मृति और मति ये व्यभिचारी भाव होते हैं ॥ १२९॥
१. कलुषतटहरम् - ख । २. वसामः - ख । ३. निष्पन्दत्वादयः ख ।
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