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अलंकारचिन्तामणिः हस्ताभ्यां किमु मृद्नामि पूर्ववैरिणमेनकम् । खगेभ्यो नखनिभिन्न खे बलि विकिरामि किम् ॥१०६॥ 'अत्रालम्बनभावाः स्युनराद्याः द्वेषगोचराः । तद्व्यापाराभिलाषाद्या भावा उद्दीपना मताः ॥१०७॥ अनुभावाः शिरोऽक्ष्योष्ठभृकुटोस्पन्दनादयः। सात्त्विकाः स्वेदवैवर्ण्यवैस्वर्यप्रमुखा मताः ॥१०८।। उत्साहो यो विभावाद्यैः पुष्टो वीररसो मतः । सोऽपि दानदयायुद्धभेदेन त्रिविधो यथा ।।१०९॥ . अन्यागोचरसंपदस्ति ममतां धत्तां च सत्साधवो नो गृह्णन्ति गृहाश्रमी च कतमः पूज्यो महासंपदा। ये साणुव्रतवृत्तयो गहिवरास्ते तर्पणीया धनैरित्याचिन्त्य नित्वमेषु कृतवांश्चक्रयन्यजन्मन्यपि ॥११०॥
इस क्षुद्र शत्रुको हाथोंसे मसल डालू क्या? अथवा नखोंसे फाड़े हुए इसे आकाशमें पक्षियोंके लिए बलिके रूपमें छोड़ दूं क्या ? ॥१०६॥
रौद्ररसके आलम्बन और उद्दीपन-इसमें शत्रुता करनेवाले मनुष्य आदि आलम्बन तथा उनके कार्य-कलाप और इच्छा इत्यादि उद्दीपन विभाव होते हैं ॥१०७॥
रौद्ररसके अनुभाव और सात्विकमाव-इस रौद्ररसमें सिर, आँख, ओष्ठ, भौंह आदिका फड़कना, स्फुरित होना प्रभृति अनुभाव होते हैं। स्वेद, वैवर्ण्य, वैस्वर्य आदि सात्त्विक भाव होते है ॥१०८॥
___ वीररसका स्वरूप और उसके भेद-विभाव इत्यादिसे परिपुष्ट जो उत्साह नामक स्थायीभाव है वही वीररसके रूपमें परिणत हो जाता है। यह वीररस दान, दया और युद्ध वीरके भेदसे तीन प्रकारका होता है ॥१०९। यथा
दूसरोंको न दिखलाई पड़नेवाली मेरे पास गुप्त सम्पत्ति है उसे ग्रहण करें। उसे यदि अपरिग्रही साधु ग्रहण नहीं करते हैं तो इतनी अधिक सम्पत्तिसे कौन गृहस्थप्रवर पूजने योग्य है । अणुव्रतको धारण करने वाले श्रेष्ठ गृहस्थोंको चक्रवर्तीने अच्छी तरह सन्तुष्ट किया। इस तरह दान द्वारा चक्रवर्तीने दूसरे जन्ममें भी अपनेको धनिक बनाये रखनेका उपाय किया ॥११०॥
१. अत्रालम्बना भावा-ख । २. नीराद्या-ख । ३. भृकुटि-ख । ४. गृह्णाति-ख ।
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