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पञ्चमः परिच्छेदः पुष्टः शोको विभावाद्यैः स एवं करुणो द्विधा । इष्टनाशादनिष्टाप्तेर्जातिरालम्बनं यथा ॥१०१।। हा जगत्सुभग हा जगसते, हा जनाश्रयण हा जनार्दन । हापहाय गतवानसि क्व मां हानुजेहि लघु हेति चारुदत् ।।१०२॥ इष्टस्य विष्णो शेनात्र । हा निधीश करुणाकर त्वया मोच्यतां मम पतिः कुधीरयम् । त्वद्भटेन विहितासिपञ्जरे लग्नविग्रहतयातिदुःखितः ।।१०३॥ 'अत्रानिष्टस्यासिपञ्जरलग्नत्वस्य प्राप्त्या। स्वजनाक्रन्दनाद्याः स्युर्भावा उद्दीपना इह । अनुभावा विलापोष्णनिःश्वासरुदितादयः ॥१०४॥ सात्त्विकास्तम्भ वैवर्ण्यवैस्वर्याश्रमुखा मताः । क्रोधः पुष्टो विभावाद्यैः स रोद्ररसतां गतः ।।१०५।।
करुणरस-विभाव, अनुभाव इत्यादिसे परिपुष्ट शोक ही करुण रसके रूपमें परिणत हो जाता है। यह दो प्रकारका होता है-(१) इष्ट जनके नाशसे उत्पन्न और (२) अनिष्टके संयोगसे उत्पन्न करुण रसका आलम्बन जातिको माना गया है ॥१०१॥ यथा--
हाय ! संसारमें सबसे सुन्दर ! हाय ! पृथ्वी के स्वामी ! हाय ! मनुष्योंके आश्रय देनेवाले, हाय ! जनार्दन ! मुझे छोड़कर कहाँ चले गये। हे छोटे भाई ! जल्दी आओ। इस प्रकार अपने अनुज को मृत्युपर बलरामने विलाप किया ॥१०२॥
यहाँ इष्टजन विष्णु-कृष्णकी मृत्युपर विलाप करनेके कारण करुण रस है।
हे निधिपति ! हे दयाके निधान ! तुम्हारे सैनिकोंके द्वारा बनाये हुए तलवारके पिजड़ेमें लगे हुए-बन्द शरीरके कारण अत्यन्त दुःखी और बुद्धिहीन मेरे पतिको छुड़वा दीजिए ॥१०३॥
यहां अनिष्ट पंजरके शरीरमें लग्नतारूपी अनिष्ट प्राप्तिसे करुण है।
इस करुण रसमें आत्मीय मनुष्योंका विलाप आदि उद्दीपन हैं एवं विलाप, गर्म, निःश्वास, रुदन इत्यादि अनुभाव हैं ॥१०४॥
करुण रसके सात्त्विक-भाव स्तम्भ वैवर्ण्य मुख, वर्णका परिवर्तित होना वैस्वर्य, गद्गद स्वर, अश्रुपतन इत्यादि करुण रसमें सात्त्विक भाव होते हैं ।
रौद्ररस-विभाव आदिसे परिपुष्ट क्रोध नामक भाव ही रौद्र रसमें परिवर्तित होता है ॥१०५॥ यथा
१. अत्रानिष्टस्यापि पञ्जर-ख । २. वैस्वयंवैवा -ख । Jain Education International
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