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पञ्चमः परिच्छेदः
अनुरक्ते सुरक्ते न स्वीकृते स्वयमेव ये । अनूढापरकीये ते भाषिते शिथिलवते ||९२॥ अपि द्वे ते अनूढे च वाच्यभेदोऽस्ति चानयोः । प्रियमाल्यैव वक्त्येका स्वयमन्यापि कामुकी ॥९३॥
प्रियं वल्लभमुपपतिमेकानूढाल्यैव सखीमुखेनैव वक्ति अन्या परकीया 'अतिकामुकी सती स्वयमपि प्रियं वक्ति ।
साधारणाङ्गना वेश्या कपटोक्तिर्धनिप्रिया । मर्त्यायितत्वसीत्कारनाट्यगीतादिवेदिनी ॥ ९४ ||
अभिलाषादिभिर्भेदैविप्रलम्भोऽप्यनेकधा । उदाहरणमेतेषामवस्थासु विलोक्यताम् ||९५||
स्वाधीनपतिकाद्यवस्थासु ।
हासाख्यः स्थायिभावो यो विभावाद्यैः प्रपोष्यते । विदूषकाद्यैरालम्बैः प्रोक्तो हास्यरसो यथा ॥ ९६ ॥
परकीया और अनूढ़ा — प्रेम के द्वारा गुरुजनको स्वीकृति के बिना स्वयं स्वीकार की गयी, अत्यन्त प्रेम करनेवालो, चरित्र हीन कामुकोको परकीया और अनूढ़ा कहा गया है ||९२ ॥
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परकीयाके भेद - परकीया भी अनूढ़ा ही होती है; पर इसके दो भेद हैं- एक तो अपने प्रियतमसे स्वयं कुछ नहीं कहती, केवल विश्वसनीय सखी द्वारा ही सब कुछ कहती है । दूसरी परकीया अत्यन्त विषयाभिलाषिणी होती है और स्वयं ही अपने प्रियतमसे बातचीत कर लेती है ।। ९३ ।।
वारांगना -- नानाविध छल-युक्त वचन बोलनेवाली, धनिकोंके साथ प्रेम करनेवाली, विपरीत रतिको ज्ञाता, चीत्कार ध्वनि करनेवाली, नृत्य, अभिनय, गीत इत्यादि - की ज्ञाता और सर्वसामान्यकी उपभोग्या नायिकाको वारांगना कहा जाता है ॥ ९४ ॥
विप्रलम्भ शृङ्गार—अभिलाष इत्यादिके भेदसे विप्रलम्भ शृङ्गार अनेक प्रकार - का होता है । इनके उदाहरण नायक-नायिकाओं की कामावस्थाओं के चित्रण में विद्यमान हैं ॥९५॥
स्वाधीनपतिका आदि आठ नायिकाओंकी अवस्थाओं में भी विप्रलम्भके उदाहरण आये हैं ।
हास्यरस- -जो विदूषक इत्यादि आलम्बन विभावादिकोंसे हास नामक स्थायीभाव परिपुष्ट किया जाता है, वह हास्य रस रूप में परिणत हो जाता है ॥ ९६ ॥ यथा -
१. अपि कामुकी - ख ।
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