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पञ्चमः परिच्छेदः रसं जीवितभूतं तु प्रबन्धानां वेऽधुना। विभावादिचतुष्केण स्थायीभावः स्फुटो रसः ॥८३॥ नवनीतं यथाज्यत्वं प्राप्नोति परिपाकतः। स्थायीभावो विभावाद्यैः प्राप्नोति रसतां तथा ॥८४॥ अथ रसविशेषः । शृङ्गारो हास्यकरुणो रौद्रवीरभयानकाः । बीभत्साद्भुतशान्ताश्च रसाः स्थायिक्रमान्नव ।।८५॥ पोष्यते या रतिर्भावैः स शृङ्गाररसो मतः। संभोगविप्रलम्भाख्यभेदाभ्यां स द्विधा मतः ॥८६॥ संपदन्वितयोः कान्ताकामिनोयुक्तयोमिथः । संभोगः संनिकर्षः स्यादुरसौख्यप्रदो यथा ॥८७॥ मुरारिरपि रुक्मिणीतनुलताद्विरेफस्तदा चिरं रमितया तया रमितरम्यमति निशि ।
रसका स्वरूप-काव्यके आत्मा-स्वरूप रसका वर्णन करते हैं। वस्तुतः बड़ेबड़े प्रबन्धकाव्योंका आनन्द रससे ही प्राप्त होता है। विभाव, अनुभाव, संचारी आदि चारों भावोंके द्वारा व्यक्त स्थायी भाव ही रस रूपसे परिणत होता है ॥८३॥
जिस प्रकार परिपाक हो जानेसे नवनीत ही घृत रूपमें परिणत हो जाता है उसी प्रकार स्थायी भाव ही विभाव, अनुभाव और संचारी भाव इत्यादिके संयोगसे रस रूपमें परिणत हो जाता है ॥८४॥
रसभेद-(१) श्रृंगार ( २ ) हास्य ( ३ ) करुण ( ४ ) रौद्र (५) वीर (६) भयानक (७) बीभत्स (८) अद्भुत और (९) शान्त ये नव रस स्थायी भावोंके क्रमानुसार माने गये हैं ॥८५॥
जो रति नामक स्थायी भाव-विभावादिके द्वारा पुष्ट किया जाता है वही श्रृंगार रस रूपमें परिणत हो जाता है। शृंगार सम्भोग और विप्रलम्भके भेदसे दो प्रकारका माना गया है ॥८६॥
सम्भोग शृंगार-नाना प्रकारको सम्पत्तिवाले तथा एक साथ रहनेवाले कान्त और कामिनीके अत्यधिक सुखप्रद सामीप्य सम्बन्धको सम्भोग शृंगार कहते हैं ॥८७॥ यथा
तब श्री रुक्मिणी जी के शरीररूपी लताके अभिलाषो भ्रमरके समान रमण किये तथा सुन्दर शरीरधारो, सुगुप्त, सुदृढ़ प्रियतमाके कठोर पयोधर, भुजा, मुख
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