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अलंकारचिन्तामणिः
[५७८आमीलिताम्बकयुगा मलयोद्भवोरुश्चर्चा स्खलत् प्रलपिता गलितोरुहारा। 'मूर्छायुता कलयते सुरतान्त्यसौख्यं श्रीराजराज वनिता परिरभ्यतां सा ।।७८॥ अत्रान्तरे यदि न गच्छसि तत्समीपं श्रीब्रह्मसूनुनपते मदनः कृशाङ्गीम् । नेष्यत्यशेषवनितातिलकायमानामन्त्यां दशां सुमशरप्रतिजर्जराङ्गोम् ।।७९॥ प्रलापसंज्वरयुक्ता द्वादशावस्था इति केचिदिच्छन्ति । प्रियस्य गुणसंलापः प्रलापः कथितो यथा । विरहात् तनुसंतापः संज्वरः कथितो यथा ॥८॥ कलासु निपुणः सौम्यो मधुरोक्तिर्मनोहरः। स राजराज एवेति वचो गोष्ठी वधूष्वभूत् ॥८॥ मोघोकृतमृणालादिशीतोपचरणा वधूः। विरहज्वरसंतप्ता त्वन्मुखेन्दु नृपेच्छति ।।८२॥
दोनों आँखोंको मूंदकर समस्त शरीरमें मलयगिरि चन्दनका लेप को हुई रुकरुककर प्रलाप करनेवाली तथा वक्षस्थलसे गिरे हुए सुन्दर हारवाली मूच्छित वह प्रेयसी सुरतकी अन्तिम सीमाका सुख अचेतनावस्थामें भोग रही है। हे चक्रवर्तिन् ! अपनी प्रियतमाका आलिंगन कीजिए॥७८॥
हे आदिनाथ भगवान के पुत्र भरत महाराज ! इस स्थिति में आप अपनी प्रियतमाके पास नहीं जाते तो कामदेव जगत्को स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ अपने बाणोंसे जर्जरीभूत शरीरवाली उस कृशांगीको अन्तिम दशा--मृति में पहुँचा देगा ॥७९॥
कोई-कोई आचार्य प्रलाप और संज्वरको भी मिलाकर बारह प्रकारको कामदशाएँ मानते हैं।
प्रलाप और संज्वर-प्रियतम या प्रियतमाके गुणों के विषय में निरन्तर बोलते रहनेको प्रलाप और प्रियतम या प्रियतमाके विरहसे होनेवाले शरीरके तापको संज्वर कहते हैं ॥८०॥ यथा
सभी कलाओंमें कुशल, सुन्दर मृदुभाषी, मनको चुरानेवाला वह चक्रवर्ती ही है, इस प्रकार अन्तःपुरकी नारियोंमें निरन्तर चर्चा हो रही थी ।।८१॥
हे चक्रवतिन् ! जिसके विषयमें कमलका डंठल, पत्र, चन्दन इत्यादि शोतोपचार बिलकुल व्यर्थ हो गये। अतएव तुम्हारे विरहसे अत्यन्त तीन ज्वरसे सन्तप्त अंगवाली वह तुम्हारी प्रियतमा केवल तुम्हारे मुख-चन्द्रका दर्शन करना चाहती है ॥८२॥
१. मूर्छायुते कलायुते सुरतान्त-ख । २. दयिता-ख । ३. ख प्रती वदन्ति ।
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