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अलंकारचिन्तामणिः अनुभावः प्रसादोऽस्त्रग्रहोऽन्ये पुलकादयः । भीः पुष्टा या विभावाद्यैर्भयानकरसो यथा ॥११४।। चक्रिवैरिनितम्बिन्यः सूच्यभेद्यतमस्ततौ । गुहायां नेत्रभाभारं 'तमोहरममुक्षत ॥११५॥ वैरिभल्लूकसर्पाद्या भावा आलम्बना मताः । उद्दीपना विभावास्तु मतास्तद्गजितादयः ॥११६।। अनुभावा दिगालोककण्ठशोषस्खलगिरः। अष्टौ च सात्त्विकाः सर्वे दैन्याद्याः व्यभिचारिणः ॥११७।। जुगुप्सैव च तैः पुष्टा स बीभत्सरसो द्विधा । जगप्स्या: लोकवैराग्यभेदाभ्यां स मतो यथा ॥११८॥ भप त्वदपादसेवाविमुखरिपगणस्वत्कृपाण प्रघातप्रोद्भूतारुः स्रवच्छोणितसहितमहापूतिपूयार्द्रकायः ।
भयानकरस
विभाव इत्यादिके द्वारा परिपुष्ट भय स्थायीभाव ही भयानक रसके रूपमें परिणत हो जाता है ॥११४॥ यथा
चक्रवर्ती भरतके शत्रुओंकी युवतियोंने गाढ़ अन्धकार समूहवाली गुफाओंमें नेत्र कान्ति समूहरूपो प्रकाश-सूर्यको छोड़ा ॥११५।। भयानक रसके आलम्बन और उद्दीपन विभाव
शत्रु, भालू, सर्प इत्यादि भयानक रसमें आलम्बन होते हैं तथा इनके गर्जन आदि उद्दीपन विभाव माने गये हैं ॥११६॥ भयानक रसके अनुभाव और व्यभिचारी भाव
दिशाओंको देखना, कण्ठका सूखना, रुक-रुककर बोलना आदि आठों सात्त्विकभाव भयानक रसमें अनुभाव होते हैं तथा दैन्य इत्यादि सभी व्यभिचारी भाव माने गये हैं ॥११७॥
बीमत्सरस-विभाव, अनुभाव आदिसे परिपुष्ट जुगुप्सा ही बीभत्सरस है। घृणायोग्य पदार्थोंके अवलोकन तथा वैराग्यके कारण इसके दो भेद माने गये हैं ॥११८॥ यथा
हे राजन् ! तुम्हारे चरणोंकी सेवासे विमुख शत्रुगण तुम्हारी तलवारके आघातसे निकले हुए तथा बहुत अधिक रक्तके साथ अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त पोबसे आर्द्र देहवाले, राज्य
१. तमोभरममुक्षत-ख । २. उद्दीपनविभावास्तु-ख । ३. गर्जनादयः-ख । ४.-ख प्रती सहितपदं नास्ति।
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