________________
२४४
अलंकार चिन्तामणिः
" कामिनी विरहतस्तवाब्रवीदित्यसो निशि सुजागरादपि । आलि मां रविकरात् स्रुतादिनों रक्ष रक्ष नृपशीतभानुना ॥७०॥ कामज्वरेण कायस्य तापनं तनुता यथा । भिन्नवस्त्वसहिष्णुत्वं विषयद्वेषणं यथा ॥ ७१ ॥ नोलाब्जखण्डनृपते वनितेन्दुरेखा तन्वङ्गिनी विबुधनुत्यमृत प्रपाना । पक्षद्वयेऽपि विरहात् परिवृद्धिहीना किं ते मनः कुमुदमीप्सति सुप्रवेष्टुम् ||७२|| संगीत संगिरमसौ सुनिशम्य भीता सख्यास्यदर्पणयुगं न च पश्यतीयम् । मुग्धा न निश्वसिति कोकिलचन्द्रबिम्बमन्दानिलाशयगता नृप मन्मथार्ता ||७३ ||
४
कोई सखी या दूती किसी नायकसे कह रही है कि हे विरह और रात्रि जागरणसे पीड़ित वह कामिनी सूर्य किरणके भोगती हुई कहती है कि हे सखि ! मुझे उस नृपति रूपी चन्द्रमासे बचाओ ॥७०॥ कृशता और विषय - विद्वेषण - कामजन्य व्याधिसे शरीर में होनेवाली पीड़ाको कृशता कहते हैं अर्थात् काम पीड़ासे शरीरमें जो क्षीणता उत्पन्न होती है, उसीका नाम कृशता है |
[ ५।७०
परस्पर नायक-नायिकाके अभीष्ट वस्तुओंसे भिन्न वस्तुओंके देखनेकी इच्छा के अभावको विषय विद्वेषण कहते हैं ॥ ७१ ॥ यथा
१. खप्रतो कामिनि । २. तानवम् - ख ।
४. च न - ख ।
Jain Education International
भाग्यशालिन् ! तुम्हारे सम्पर्क से अत्यन्त कष्ट
हे नीलकमल के टुकड़े के समान कान्तिवाले राजन् ! देवताओंसे प्रशंसित अमृत पानकी इच्छावाली कृशांगी वनितारूपी पतली चन्द्ररेखा दोनों पक्षों में वृद्धिहीन होकर तुम्हारे मनरूपी कुमुदके भीतर प्रवेश करना चाहती है । क्या कुमुदके समान स्वच्छ और शीतल तुम्हारे मनमें प्रवेश करनेके लिए ही इतनी दुर्बलांगी हो गयी है ॥७२॥
कोई सखीया दूती नायिकाकी अवस्थाओंका वर्णन करती हुई कहती है कि हे राजन् ! कामपीड़ित आपकी वह प्रेयसी संगीतको मधुर ध्वनिको सुनकर भयभीत हो जाती है और सखीके द्वारा दिये गये दर्पण में अपने मुखको नहीं देखती है । काम से सतायी हुई वह मुग्धा कोयल, चन्द्र बिम्ब, मन्द पवन, जलाशयादिको देखनेपर भी श्वास नहीं लेती | अर्थात् संसार की सभी सुन्दर वस्तुओंके प्रति उसे अरुचि हो गयी है, पर वह मुग्धा है, अतएव उसकी यह अरुचि सर्व साधारण द्वारा प्रतीत होने योग्य नहीं ॥७३॥
३. प्रपाना इत्यस्य स्थाने प्रवाहाख ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org