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पञ्चमः परिच्छेदः त्रपानाशो गुरुत्वस्यागणनान्मानमोचनम् । मनोवैकल्यतो मोहः स्यादुन्मादो यथा द्वयम् ॥७४॥ मन्दानिले वहति गुञ्जति च द्विरेफे मत्ते निकूजति पिके कलकूजनाढ्ये । पारावते च नृप सा विजहाति मानं गन्तु पदे तव समिच्छति मन्मथार्ता ॥७५।। माकन्दमञ्जुललतामवलम्ब्य मुग्धा जल्पे हि पश्य वचनादनुनीय खिन्ना । आनेतुमक्षमतया गलदश्रुनेत्रा कोपेन सा वसति भो वरचक्रपाणे ॥७६।। मूर्छा सेन्द्रियवैकल्यान् मुहुरज्ञातृता यथा । प्राणहानिः प्रियालाभात् तत् क्षणं च मृतिर्यथा ।'७७।।
यह विषय-विद्वेषणका उदाहरण है।
लज्जानाश और उन्माद- गुरुजनोंकी कोई परवाह न कर मान छोड़ देना अर्थात् गुरुजनोंके समक्ष हो कामाधिक्यके कारण प्रिया या प्रियतम द्वारा परस्पर एक दूसरेका गुणगान करना लज्जानाश है और मनकी अत्यधिक विकलताके कारण मोह बुद्धिसे विपरीत कार्य-सम्पादन करना उन्माद है ॥७४॥ यथा
किसी नायिकाकी लज्जा-नाश अवस्थाका वर्णन करती हुई कोई दूती कहती है कि हे राजन् ! मन्द-मन्द पवनके बहनेपर, भ्रमरोंके गुंजार करनेपर तथा मधुर कूजनसे व्याप्त मतवाले कोकिल और पारावतके कूजनेपर वह लज्जाको छोड़ देती है और कामपीड़ित होकर तुम्हारे चरणोंको सेवामें आना चाहती है ॥७५॥
हे श्रेष्ठ चक्रवतिन् ! तुममें आसक्त, उन्मादिनी वह तुम्हारी मुग्धा प्रेयसी आम्रकी सुन्दर लताको पकड़कर निश्चय ही में बोल रही हूँ देखो, इस प्रकार अनुनय करके अत्यन्त दुःखी हो रही है। क्रोधके कारण आँखोंसे निरन्तर आंसू बरसाती हुई समययापन कर रही है ॥७६॥
मूर्छा और मृति-अभीष्टकी प्राप्ति न होनेपर इन्द्रियोंकी विकलताके कारण होनेवाली अचेतनताको मूर्छा कहते हैं ।
प्रियजनको प्राप्ति न होने के कारण उसी क्षण होनेवाली प्राण-हानिको मृति कहते हैं ॥७७॥ यथा
१. गुरुत्वस्य गणना-ख । २. -खप्रतो वहति पदं नास्ति । ३. माकुन्द-ख ।
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