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अलंकारचिन्तामणिः
[ ५।५७दुःखमोहादिना वेगोऽपस्मारः कायतापकृत् । निधिपतिविरहिण्यः स्वप्नतो वीक्ष्य चन्द्रमुदयगिरिनिषण्णं 'रक्ष मा वोक्ष पांसून् । इति वचनविधानाः संभ्रमोत्था लुठन्त्यः स्वगृहभुवि सखोस्ता व्यस्तनाम्नाह्वयन्ति ॥५७॥ व्याधिवराधिकस्तापश्चेतसोऽभिभवाद्यथा। स्वर्गगते चक्रिरणेऽरिवृन्दे सहप्रयातु वनितास्तदीयाः । जाज्वल्यमाने मदनज्वराग्नि-कुण्डे पतन्ति स्म वपुनिराशाः ।।५८॥ निद्रायास्तु समुद्रेकः सुप्तिः सा कथिता यथा। राज्ये समस्तेऽरिजयान्निधीश सुस्ये रिपुस्त्री श्वसितानिलेन । क्षोभद्धियुक्तोऽपि तदक्षिवाभिर्वाधिरारेन भिनत्ति निद्राम् ॥५९।।
अपस्मार-अवस्था विशेष में काम, दुःख, मोह इत्यादि शरीरमें ज्वलन उत्पन्न करनेवाले वेग-विशेषको अपस्मार कहते हैं। अपस्मारका अर्थ चित्तको विक्षिप्तता है । इसके कारण ग्रह, भूत, प्रेत आदिके आवेश हैं। अपस्मारके होनेपर पृथ्वोपर लोटना, मुंहसे झाग निकलना, पसीना निकलना, लार टपकना आदि हुआ करते हैं । यथानिधिपति भरतकी विरहिणी स्त्रियां स्वप्न में उदयाचलर विद्यमान चन्द्रमाको देखकर कहती हैं कि हे चन्द्र ! अपनी किरणोंसे हमें मत जलाओ, बचाओ, हमें पापिनी मत समझो, इस प्रकार कहती हुई घबराहटसे उठती हैं और अपने भवनको भूमिपर लोटती हैं तथा अपनी सखियोंका ऊटपटांग नाम लेती हुई पुकारती हैं ॥५७॥
व्याधिनायक इत्यादिके अस्वीकृति रूप अपमानके कारण चित्तमें ज्वरादिकी अपेक्षा भी अधिक तापदायक रोग-विशेषको व्याधि कहते हैं। व्याधिका अभिप्राय है वात, पित्त आदिके प्रकोपसे ज्वर आदि रोगोंका होना। इसमें नीचे लोटना, कैंपकंपी आदि विकार हुआ करते हैं। यथा-चक्रवर्ती भरत द्वारा युद्ध में शत्रु-समूहके मारे जानेपर अपने जीवन में निराश उनको स्त्रियां अपने पतियोंके साथ जानेके लिए अत्यन्त प्रज्वलित कामाग्नि-कुण्डमें गिर रही हैं ॥५८॥
सुप्ति-निद्राके अतिशय आधिक्यको सुप्ति कहते हैं । यथा-हे निधोश ! शत्रुओंके ऊपर विजय प्राप्त कर लेनेके कारण सम्पूर्ण राज्यके सुस्थिर होनेपर शत्रुनारियोंके निःश्वास-रूपी पवनसे क्षुब्ध एवं शत्रु-नारियोंके नयन जलसे वृद्धिंगत समुद्र मुरारिकी निद्राको नहीं तोड़ रहा है ॥५९॥
१. रक्ष माविक्षिपांशून्-ख । २. इति चनविधानास्संभ्रमात्ती लुठन्त्यः-ख । ३. व्याधिजरादिभिश्चेतस्तापाद्यभिभवाद्यथा-ख । ४. श्वसितानलेन-ख ।
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