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अलंकारचिन्तामणिः
लक्ष्मीर्वक्षसि भारती च वदने बाहौ च वीरेन्दिरा कुत्रासा इति पृष्टया वरयशो दूत्या निधीनां पतेः । सत्कायान्तरितीरितं न भणितस्तत्र प्रवेशक्रमः कीदृक्षः स किया कियत्सदवधिः कोऽयं त्वितीयं स्थिता ॥ ५०॥
त्रैलोक्यं धवलं मयाजनि तथाप्येषोऽमराद्रिश्च्छवि
हैमीं न त्यजतीति दुग्धजलधी स्वाङ्गं हिया क्षालितम् । नो जन्मसेवेऽस्य वारिकलनात्सोऽद्रिर्वलक्षः कथं कीर्तेरेवमभिष्टुतौ निधिपतेरर्युत्तमाङ्गेर्नतम् ॥५१॥ चेतः संभ्रम आवेग इष्टानिष्टागमोद्भवः ।
कृत्वा दिग्विजयं पुरीं प्रविशति ब्रह्मात्मजे काचनावस्रस्तोरुकुचांशुकामणिमयस्तम्भं कराभ्यां घृतम् । भीत्यभ्यर्णगतं स्वनायकमिव प्रोतङ्गगपीनस्तनी श्रीकामा गर्मैवेदिनी वसुवधूरारुह्य तं प्रेक्षते ॥ ५२ ॥
वक्षःस्थलपर लक्ष्मी, मुखमें सरस्वती, बाहुमें वीरश्री कहाँ है, इस प्रकार पूछी हुई यशोदूतीने निधिपतिके सुन्दर शरीर में स्थित है ऐसा कहा, किन्तु उनके प्रवेशका क्रम नहीं बतलाया | वह निधीश कैसा है ? कितना है ? कितनी उसकी अवधि है ? यह कौन है ? इस प्रकार पूछनेपर मौन रह गयी ॥५०॥
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मैंने तीनों लोकोंको श्वेत कर दिया, तो भी यह सुमेरु सुवर्णमयी कान्तिको नहीं छोड़ता है । इस लज्जासे अपने अंगको क्षीर सागरमें धो लिया, नहीं तो जन्मके अभिषेकके समय इनके स्नान के जलके धारण करनेसे वह पर्वत श्वेत कैसे हुआ ? इस प्रकार निधिपति की कीर्तिको प्रशंसा होनेपर शत्रुओंका मस्तक झुक गया ॥ ५१ ॥
आवेग- - अचानक इष्ट या अनिष्टको प्राप्तिसे होनेवाली चित्तकी व्याकुलताको आवेग कहते हैं । आवेगके कई भेद हैं- ( ९ ) हर्षज आवेग, ( २ ) उत्पातज आवेग, ( ३ ) अग्निज आवेग, ( ४ ) राजविद्रवज आवेग, ( ५ ) गजादि जन्य आवेग, ( ६ ) वायुज आवेग, (७) इष्टज आवेग, (८) अनिष्टज आवेग । इस प्रकार भिन्न-भिन्न निमित्तों से उत्पन्न कई प्रकारके आवेग हो सकते हैं । यथा - दिग्विजय कर ब्रह्मतनय श्री भरतके अपनी नगरी में प्रवेश करने के समय विशाल स्तनोंसे स्खलित हुए वस्त्रवाली तथा अत्यन्त उच्च, सुदृढ़ स्तनवाली, शोभा सम्पन्न कामदेव आ गये, इस बात को समझनेवाली कोई वारांगना दोनों हाथोंसे पकड़े हुए मणिमय स्तम्भको भयके मारे अपने पास आये हुए अपने नायक के समान उनपर चढ़कर देखने लगी ॥ ५२ ॥
१. कोऽयं वितीयम् - ख । २. जन्मसवेद्य - ख । ३. स्तनि - ख । ४. वेदिनि-ख ।
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